अंग्रेजों की भारत विजय (बक्सर का युद्ध, इलाहाबाद संधि, आंग्ल-मैसूर संबंध)
आधुनिक भारत का इतिहास
अंग्रेजों की भारत विजय (British
Conquest in India)
(भाग - २)
बक्सर का युद्ध (Battle of Buxar)
बक्सर का युद्ध सैन्य दृश्टिकोण से अंग्रेजो की बहुत बड़ी सफलता थी क्योकि प्लासी के युद्ध का विजय सिराजुदौला के सेनानायकों के विश्वासघात का परिणाम था। किन्तु बक्सर के युद्ध में अंग्रेज बिना किसी छल-कपट के ही विजयी हुए थे। इसके अतिरिक्त, अवध का नवाब शुजाउद्दौला की भांति अनुभवहीन एवं मुर्ख नहीं था। वह राजनीति के साथ-साथ युद्ध में भी निपुण था। ऐसे योग्य शासन को पराजित करके कंपनी की प्रतिष्ठा में वृद्धि हो गयी। इस विजय के पश्चात बंगाल में अंग्रेजी सत्ता के प्रभुत्व की स्थापना हो गयी।
सन 1765 में क्लाइव बंगाल के गवर्नर के रूप में दूसरी बार कलकत्ता आया। इस युद्ध की समाप्ति के बाद क्लाइव ने मुग़ल सम्राट शाहआलम द्रितीय तथा अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ क्रमश: इलाहाबाद की प्रथम एवं द्रितीय के संधि की।
इलाहाबाद की प्रथम संधि (First Alliance of Allahabad) (12 अगस्त, 1765 ई.)
- यह संधि क्लाइव, मुग़ल सम्राट शाहआलम द्रितीय तथा बंगाल के नवाब नज्मुद्दौला के मध्य सम्पन्न हुई। इस संधि की शर्तो निम्नवत थी \
- कंपनी को मुग़ल सम्राट शाहआलम द्रितीय से बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हुई।
- कंपनी ने अवध के नवाब से कड़ा और इलाहाबाद के जिले लेकर मुग़ल, सम्राट शाहआलम द्रितीय को दे दिए।
- कंपनी ने मुग़ल सम्राट को 26 लाख रूपये की वार्षिक पेंशन देना स्वीकार किया।
इलाहाबाद की द्रितीय संधि (Second Alliance of Allahabad) (16 अगस्त, 1765 ई.)
- यह संधि क्लाइव एवं शुजाउद्दौला के मध्य सम्पन्न हुई। इस संधि की शर्ते निम्नवत थी जिससे
- इलाहाबाद और कड़ा को छोड़कर अवध का शेष क्षेत्र नज्मुद्दौला को वापस कर दिया गया।
- कंपनी द्वारा अवध की सुरक्षा हेतु नवाब के खर्च पर एक अंग्रेजी सेना अवध में रखी गई।
- कंपनी को अवध में कर मुफ्त व्यापार करने की सुविधा प्राप्त हो रही है
- शुजाउद्दौला को बनारस के राजा बलवंत सिंह से पहले की ही तरह लगान वसूल करने का अधिकार दिया गया। राजा बलवंत सिंह ने युद्ध में अंग्रेजो की सहायता की थी।
बंगाल में दैध- शासन (Dyarchy in Bengal) (1765-1772 ई.)
सन 1765 में सम्पन्न इलाहाबाद की प्रथम संधि बंगाल के इतिहास में एक युगांतकारी घटना थी क्योंकि कालांतर में इसने उन प्रशासकीय परिवर्तनों की पृष्ठभूमि तैयार कर दी जिससे ब्रिटिश प्रशासनिक व्यवस्था की आधारशिला रखी गयी। नवाब की सत्ता का अंत हो गया और एक ऐसी व्यवस्था का जन्म हुआ जो शासन के उत्तरदायित्व से मुफ्त थी।
मुग़लकाल में प्रांतीय प्रशासन के स्तर पर दो अधिकारी होते थे, जिन्हे दीवान एवं सूबेदार या गवर्नर कहा जाता था। दीवान प्रांतीय राजस्व या वित्त व्यवस्था का प्रभारी होता था, जबकि सूबेदार या गवर्नर निजामत (सैन्य , प्रतिरक्षा, पुलिस एवं न्याय प्रशासन) के कार्यो का निष्पादन करता था। ये दोनों अधिकारी एक दूसरे पर नियंत्रण रखते थे एवं मुग़ल केंद्रीय प्रशासन के प्रति उत्तरदायी होते थे।
बंगाल के संप्रभुतासम्पन्न शासन के रूप में कंपनी (Company as Sovereign Ruler of Bengal)
सन 1772 में जब वारेन हेसिटंग्स को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया, तब क्लाइव द्वारा स्थापित राजनितिक प्रणाली पूर्णत: विफल हो चुकी थी। इसलिए हेसिटंग्स ने बंगाल पर विजित राज्य के रूप में शासन करना प्रारंभ कर दिया और छदम मुग़ल संप्रभुता के नकाब को उतार फेंका। नवाब को दी जाने वाली रकम (निर्वाह-भता) अब 32 लाख से घटाकर 16 लाख कर दी गयी।
मुग़ल सम्राट शाहआलम द्रितीय से कड़ा एवं इलाहाबाद को छीनकर अवध के नवाब को बेच दिया गया और उसकी पेंशन (26 लाख रुपये) बंद कर दी गयी। इस प्रकार कंपनी ने दो दशक से भी कम समय में बंगाल के प्रशासनिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।
आंग्ल-मैसूर संबंध (Anglo-Mysore Relations)
अंग्रेजो द्वारा मैसूर के मामले में हस्तक्षेप के कई कारण थे जिनमे सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण वाणिजियक था। मैसूर राज्य की भौगोलिक अविस्थति था और तट के लाभकारी व्यापार पर मैसूर राज्य का पूरा नियंत्रण था। अंग्रेज एक ओर मुख्यतः काली मिर्च और इलायची के व्यापार पर एकाधिकार चाहते थे, वही दूसरी ओर उन्हें मैसूर से मद्रास की संप्रभुता को भी खतरा था।
मराठों द्वारा मैसूर पर नियंत्रण आक्रमणो से वहाँ की वित्तीय स्थिति ख़राब हो गयी थी। मैसूर राज्य के वित्त नियंत्रण देवराज एवं नंदराज की असफलता ने हैदरअली के उदय होने में बहुमूल्य योगदान दिया। सन 1761 तक हैदरअली ने मैसूर में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। एक ओर जहाँ अपनी सर्वोच्चता को स्थापित करने तथा अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए मराठा, निजाम तथा कर्नाटक का नवाब निरंतर सीमा-विस्तार में लगे हुए थे, वही दूसरी ओर, पड़ोस में हैदरअली के नेतृत्व में एक स्वतंत्र राज्य का उदय होना उनकी आँख का काँटा बन गया था।
ऐसी परिसिथतियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को हस्तक्षेप का सुनहरा अवसर प्रदान किया। मैसूर राजस्व के मामले में धनी प्रांत था और फ्रांसीसियों से उसके संबंध थे, इसलिए मैसूर-फ्रांसीसी संबंध अपने आप में अंग्रेजो के लिए एक बड़ा खतरा था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया। पारिणामतः कंपनी एवं मैसूर के मध्य चार महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गए।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84 ई.) (First Anglo-Mysore War (1780-84)
बंगाल में मिली विजय के पश्चात कंपनी का आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया था। अब उसने अपना ध्यान दक्षिण भारत की ओर केन्द्रित किया। अंग्रेजो द्वारा हैदरअली के विरुद्ध 1766 ई. में हैदराबाद के निजाम के साथ एक संधि की गयी। निजाम ने अंग्रेजो को हैदर के विरुद्ध सहायता प्रदान करना स्वीकार किया।
टीपू सुल्तान (1750-1799 ई.)
टीपू सुल्तान 18 वीं सदी के मैसूर का शासक था। यह हैदरअली की मृत्यु के बाद 1782 ई. में गद्दी पर बैठा। इस समय अंग्रेजो तथा मैसूर के मध्य संघर्ष जारी था। सन 1784 में दोनों पक्षों में मंगलौर की संधि हो गयी। उसने तुर्की एवं फ़्रांस में अपने दूत भेजकर अंग्रेजो के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने का प्रत्यन किया, किंतु विफल रहा। सन 1785 से 1787 ई. के मध्य उसका मराठों से संघर्ष हुआ तथा उसने कुछ मराठा प्रदेशो पर अधिकार कर लिया।
कार्नवालिस ने 1790 ई. में टीपू पर फ्रांसीसियों से सांठ-गांठ करने का आरोप लगाते हुए उस पर आक्रमण कर दिया तथा निजाम व मराठो को भी अपने साथ मिला लिया। आरंभ में अंग्रेज विफल रहे, किंतु अंततः वे टीपू को 1792 ई. में श्रीरंगपटटनम की संधि हेतु विवश करने में सफल रहे। इस संधि के अनुसार उसे 3 करोड़ रुपए तथा अपने साम्राज्य का एक बड़ा भाग अंग्रेजो को सौंपना पड़ा। इसके बाद 1799 ई. में वेलेजली ने टीपू पर पुनः फ्रांसीसियों के सांठ-गांठ का आरोप लगाते हुए उस पर आक्रमण कर दिया। टीपू वीरतापूर्वक लड़ता हुआ 4 मई, 1799 ई. को मारा गया तथा मैसूर राज्य पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया।
टीपू एक वीर सेनानायक था, किंतु वह अपने पिता के समान चतुर राजनीतिज्ञ सिद्ध नहीं हुआ। वह जैकोबिन क्लब (Jacobin Club ) का सदस्य था तथा उसने अपनी राजधानी श्रीरंगपटटनम में 'स्वतंत्रता का वृक्ष' लगवाया था। उसने नई मुद्रा ढलवाई तथा नाप-तौल की नवीन विधि अपनायी, आधुनिक कैलेंडर की शुरुआत की तथा श्रंगेरी के मठ को दान दिया। टीपू सुल्तान ने अपनी एक व्यापारिक कंपनी भी स्थापित की।
द्रितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84 ई.) (Second Anglo-Mysore War (1780-84)
सन 1771 में जब मराठों ने हैदरअली पर आक्रमण किया तब अंग्रेजो ने मद्रास की संधि का उललंघन करते हुए उसकी कोई सहायता नहीं की। अंग्रेज मद्रास की संधि के प्रति निष्ठावान नहीं थे। परिणामस्वरूप, दोनों के मध्य एक बार फिर से युद्ध के बादल मंडराने लगे। ब्रिटिश गवर्नर जनरल वांरेन हेसिटंग्स अमेरिका में युद्ध छिड़ने एवं फ्रांसीसियों द्वारा अमेरिका का साथ निभाने से चिंतित हो गया क्योकि हैदरअली के फ्रांसीसियों से अच्छे संबंध थे ।
आंग्ल-मैसूर युद्ध के समय बंगाल के गवर्नर जनरल
युद्ध |
समय |
गवर्नर जनरल |
---|---|---|
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध |
1767-69 ई. |
लॉर्ड वेरेल्सट |
द्रितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध |
1780-84 ई. |
लॉर्ड वारेन हेसिटंग्स |
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध |
1790-92 ई. |
लॉर्ड कार्नवालिस |
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध |
1799 ई. |
लॉर्ड वेलेजली |
आंग्ल-मैसूर संबंध (Anglo-Mysore Relations)
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767 - 69 ई.) - First Anglo-Mysore War (1767-69)
कारण :
(क) अंग्रेजो की महत्वाकांक्षाएँ
(ख) कर्नाटक के नवाब मुहम्मद अली व हैदरअली
में शत्रुता
(ग) मालाबार के नायक सामन्तो पर हैदरअली का
नियंत्रण
(घ) हैदरअली का अंग्रेजो की मित्रता का
प्रस्ताव न मानना।
परिणाम : मद्रास की संधि, 1769 ई. - हैदरअली व ईस्ट इंडिया कम्पनी दोनों पक्षों ने एक दूसरे के विजित प्रदेश तथा युद्धबंदी लौटा दिए। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर किसी भी बाहरी शक्ति के आक्रमण के समय सहायता देने का वचन दिया।
दितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780 - 84 ) - Second Anglo-Mysore War (1780-84)
कारण :
(क) अंग्रेजो द्वारा संधि की शर्त
का पालन न करना
(ख) अंग्रेजो का माहे पर अधिकार
(ग) हैदरअली द्वारा त्रिगुट का निर्माण
(घ) हैदरअली के फ्राँसीसियो के साथ
सम्ब्न्ध ।
परिणाम : मंगलौर की संधि, 1784 ई. - टीपू व अंग्रेज । टीपू को मैसूर राज्य में अंग्रेजो के व्यापारिक अधिकार को मानना पड़ा। अंग्रेजो ने आश्वासन दिया कि वे मैसूर के साथ मित्रता बनाये रखेंगे तथा संकट के समय उसकी मदद करेंगे।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790 - 92 ई.) - Third Anglo-Mysore War (1790-92)
कारण :
(क) मंगलौर की संधि का अस्थायित्व
(ख) टीपू का फ्रांसीसियों से सम्पर्क
(ग) मराठों के भेजे पत्र में कार्नवालिस
द्वारा टीपू को मित्रो की सूची में शामिल न करना।
परिणाम : श्रीरंगपटटनम की संधि, 1792 ई. - टीपू और अंग्रेज । इस संधि के अनुसार अंग्रेजो अर्थात कार्नवालिस को टीपू सुल्तान द्वारा अपना आधा राज्य तथा तीन करोड़ रूपये जुर्माने के रूप में दिए गए।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.) - Fourth Anglo-Mysore War (1799)
कारण :
(क) टीपू का फ्रांसीसियों से
सम्पर्क
(ख) भारत पर नेपोलियन के आक्रमण का खतरा
(ग) वेलेजली की आक्रामक नीति
परिणाम :
(क) टीपू के राज्य का विभाजन
(ख) दक्षिण भारत पर अंग्रेजी प्रभुत्व तथा
वेलेजली की प्रतिष्ठा में वृद्धि, टीपू की मृत्यु।
- सुझाव या त्रुटियों की सूचना के लिये यहां क्लिक करें।
data-matched-content-ui-type="image_card_stacked"
Useful Tips & Articles
तैयारी कैसे करें? |
EXAM SUBJECTS |
STUDY RESOURCESDownload Free eBooks |