अंग्रेजों की भारत विजय (आंग्ल-मराठा संबंध, पिंडारियो का दमन, मराठों की पराजय)
आधुनिक भारत का इतिहास
अंग्रेजों की भारत विजय (British
Conquest in India)
(भाग - 3)
आंग्ल-मराठा संबंध (Anglo-Maratha Relations)
भारतीय राज्यों के मध्य राजनीतिक सर्वोच्चता एवं क्षेत्रीय विस्तार के संघर्षो ने ईस्ट इंडिया कंपनी को इन राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का सुनहरा अवसर प्रदान किया। जहाँ तक मराठों के क्षेत्र का प्रश्न है तो यहाँ ब्रिटिश हस्तक्षेप का मुख्य कारण वाणिजियक था । सन 1784 में चीन के साथ कपास के व्यापार और गुजरात एवं बॉम्बे के तट से अचानक बढ़े व्यापार ने अंग्रेजो की राजनीतिक महत्वकांक्षाओ को बहुत अधिक बढ़ा दिया । मराठा सरदारों के आपसी झगड़ो ने अंग्रेजो को वह अवसर प्रदान कर दिया जिसकी उन्हें तलाश थी। पेशवा नारायण राव की मृत्यु के पश्चात रघुनाथ राव ने पेशवा पद पर अपना दावा प्रस्तुत किया तथा नाना फड़नवीस एवं माधवराव का विरोध किया।
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775 - 82 ई.) (First Anglo-Maratha War (1755-82)
रघुनाथ राव ने बंबई के अंग्रेजी गवर्नर से 1775 ई. में संधि कर ली । बंबई की अंग्रेजी सरकार ने गवर्नर जनरल एवं उसकी काउंसिल की पूर्व सहमति को आवश्यक नहीं समझा। 7 मार्च, 1775 ई. को रघुनाथ राव और बंबई सरकार के मध्य हुई संधि के अनुसार अंग्रेज रघुनाथ राव को पेशवा पद पर प्रतिषिठत करने के लिए सैन्य सहायता देंगे जिसके बदले सालसेट और बेसिन के आसपास का क्षेत्र एवं भड़ौच तथा सूरत की आय पर अंग्रेजो का अधिकार होगा। इस संधि में शामिल 16 शर्तो में से एक यह भी थी कि मराठे, बंगाल एवं कर्नाटक पर आक्रमण नहीं करेंगे।
प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध लगभग 7 वर्षो तक चला। कर्नल कीटिंग के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने सूरत पर आक्रमण कर दिया। आरंभिक युद्ध 18 मई, 1775 ई. को 'आरस के मैदान' में हुआ। इस युद्ध में अंग्रेज विजयी रहे। मराठे पूना पर अपना नियंत्रण बनाए रखने में कामयाब रहे। अंत में दोनों पक्षों के मध्य 1782 ई. में सालबाई कि संधि से युद्ध समाप्त हो गया।
द्रितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803 - 05 ई.) (Second Anglo-Maratha War (1803-05)
सन 1800 में नाना फड़नवीस की मृत्यु के पश्चात पूना दरबार षडयंत्रो का केन्द्र बन गया था। लॉर्ड वेलेजली का ऐसा मानना था कि भारत को नेपोलियन के खतरे से बचने का एकमात्र उपाय समस्त भारतीय राज्यों का अधिग्रहण करना था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके सहायक संधि प्रणाली का विकास किया। नाना फड़नवीस अंग्रजो की कुटिलता से परिचित थे, इसलिए उन्होंने मराठो को सहायक संधि से दूर रखा। किन्तु उनकी मृत्यु के पश्चात पेशवा बाजीराव ने अपना असली रूप दिखाया। सन 1801 में पेशवा बाजीराव द्रितीय ने जसवंत राव होल्कर के भाई बिठठू जी की हत्या कर दी तथा पूना पर आक्रमण कर पेशवा और सिंधिया की सेना को पराजित कर दिया। पूना पर होल्कर का नियंत्रण हो गया। बाजीराव द्रितीय ने भागकर बेसीन में शरण ली। 31 सितम्बर, 1802 ई. को बाजीराव द्रितीय एवं अंग्रेजो के मध्य बेसीन की संधि (Treaty of Bassein, 1802) हुई।
बेसीन की संधि की प्रमुख बातें निम्नवत है:
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कंपनी को सूरत नगर मिल गया।
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पेशवा ने अंग्रेजी संरक्षण स्वीकार कर लिया।
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पेशवा ने पूना में अंग्रेजी सेना को रखना स्वीकार कर लिया।
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पेशवा ने अंग्रेजो को निजाम से चौथ वसूली का अधिकार दे दिया तथा गायकवाड़ के विरुद्ध युद्ध न करने का वचन दिया।
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पेशवा ने अपने विदेशी मामले कंपनी के अधीन कर दिया।
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पेशवा ने कंपनी के किसी भी यूरोपीय शत्रु को न रखना स्वीकार किया।
तृतीया आंग्ल-मराठा युद्ध (1817 - 18 ई.) (Third Anglo-Maratha War (1817-18)
सन 1805 के पश्चात मराठों को शांति के जो गिने-चुने वर्ष मिले थे, उन्होंने उनका प्रयोग अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने के विपरीत आपसी षड्यंत्र और कलह में नष्ट कर दिया। लॉर्ड हेसिटंग्स के भारत का गवर्नर जनरल बनकर आने के बाद उसने अंग्रेजी क्षेष्ठता को स्थापित करने के लिए भारतीय शक्तियों के विरुद्ध दमनात्मक रुख अपनाया।
हेसिटंग्स ने पिंडारियो के विरुद्ध अपने अभियान की शुरुआत की जिससे मराठों के प्रभुत्व को चुनौती मिली। दोनों पक्षों के मध्य तनाव बढ़ता गया जिसने संघर्ष को अवश्यभावी बना दिया। यह संघर्ष पिंडारियो के विरुद्ध हेसिटंग्स की प्रत्यक्ष कार्यवाही से तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध में परिणत हो गया।
पिंडारियो का दमन (Oppression of Pindaris)
पिंडारी मराठा सेना में अवैतनिक सैनिकों के रूप में अपनी सेवा देते थे। ये लूटमार करने वाले दलों के रूप में होते थे जिनकी नियुक्ति बाजीराव-प्रथम के समय शुरू हुई थी। ये मराठों की ओर से युद्ध में भाग लेते थे जिसके बदले उन्हें लूट से प्राप्त रकम का निश्चित हिस्सा दिया जाता था। पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय के पश्चात वे सिंधिया तथा होल्कर की सेना में भर्ती हो गए थे तथा मालवा के क्षेत्र में बस गए थे। उनके दल में सांप्रदायिक एकता थी अर्थात उनमे हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही शामिल थे। इनके प्रमुख नेता वासिल मुहम्मद, चीतू, करीम खां इत्यादि थे।
19वीं सदी के पूर्वार्ध में उन्होंने मिर्जापुर, शाहाबाद, निजाम के क्षेत्र आदि पर आक्रमण कर वहाँ लूटमार मचा दी। लॉर्ड हेसिटंग्स ने पिंडारियो के दमन के लिए सेना भेज दी। यह संघर्ष तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध में परिवर्तित हो गया। आधुनिक अनुसंधानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मराठे स्वयं इनकी लूटमार से परेशान थे तथा उन्होंने अपनी सेना का प्रयोग पिंडारियो के दमन के लिए ही किया था।
मराठों की पराजय के कारण (Reasons for Marathas’ Defeat)
- मराठों द्वारा अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करने की प्रतिद्रन्द्रितीय ने केंद्रीय मराठा शक्ति को कमजोर कर दिया जिसका अंग्रेजो ने पूरा लाभ उठाया।
- मराठा सरदारों के बीच आपसी षड्यंत्र और एकता की कमी ने अंग्रेजो को हस्तक्षेप का अवसर प्रदान कर दिया।
- मराठों की स्थिर आर्थिक नीति एवं सीमित आय के स्रोतों से भी उनकी स्थिति अंग्रेजो की तुलना में कमजोर हो गयी।
- प्रशासन में व्यक्तिगत निष्ठां, जात-पाँत तथा अन्य सामाजिक आधारों पर विभाजन का प्रयास किया जाता रहा, जिससे मराठा प्रशासन में लयबद्र्त्ता का अभाव आ गया और अनेक गुटों का निर्माण हो गया।
- स्पष्ट राजनीतिक लक्ष्यों का अभाव तथा उत्तम गुप्तचर व्यवस्था की कमी ने भी मराठों की पराजय को अवसयंभवी बना दिया।
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