अंग्रेजों की भारत विजय (पंजाब का अधिग्रहण, सहायक संधि, व्यपगत सिद्धांत)
आधुनिक भारत का इतिहास
अंग्रेजों की भारत विजय (British
Conquest in India)
(भाग - 4)
पंजाब का अधिग्रहण (Acquisition of Punjab)
सन 1839 में पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात राजनीतिक अस्थिरता का माहौल व्याप्त हो गया। तत्पश्चात मात्र एक वर्ष के बाद उनके उत्तराधिकारी पुत्र खड़गसिंह की भी मृत्यु हो गयी। उसके बाद अगला शासक नैनिहाल सिंह बना। वह भी शीघ्र ही काल के मुख में समा गया। अब शेरसिंह गद्दी पर बैठा। सन 1843 में शेरसिंह की भी हत्या कर दी गयी। पंजाब षडयंत्रो का एक गढ़ बन गया था। इसी वर्ष राजमाता झिन्दन के संरक्षण में महाराजा रणजीत सिंह के अल्पवयस्क पुत्र दिलीप सिंह का राज्यारोहण किया गया। दीलीप सिंह के शासनकाल में ही प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध हुआ।
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (1845-46 ई.) (First Anglo-Sikh War (1845-46)
प्रथम आंगल-सिख युद्ध राजमाता झिन्दन की राजनीतिक महत्वकांक्षाओ का परिणाम था। अंग्रेजी सेनानायक मेजर ब्रॉडफुट की नीतियों ने सिख सेनापति लालसिंह तथा तेजासिंह को अंग्रजो के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए उकसाया। परिणामस्वरूप, खालसा सरकार ने अंग्रजों के विरुद्ध आक्रमण की घोषणा कर दी। इस प्रकार प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध के समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग था एवं भारत के प्रधान सेनापति का नेतृत्व लॉर्ड गफ के पास था।
इस युद्ध में चार लड़ाइयाँ फिरोजशाह, मुदकी, बद्रोवाल और अलीबाल में लड़ी गयी जिनमे कोई भी निर्णय नहीं हो सका। पांचवीं एवं अंतिम लड़ाई सबराओ में हुई जो निर्णायक सिद्ध हुई। इस लड़ाई में अंग्रेजी सेना ने सिखो को पराजित कर दिया तथा लाहौर पर अधिकार कर लिया (20 फरवरी, 1846 )। इस युद्ध के पश्चात 9 मार्च, 1846 ई. को अंग्रेजो एवं सिखों के मध्य लाहौर की संधि (Treaty of Lahore , 1846 ) हुई।
इस संधि के प्रमुख परिणाम निम्नवत रहे:-
- अंग्रेजो ने सतलुज नदी के दक्षिण ओर के सभी प्रदेशो को सिखों से छीन लिया।
- अंग्रेजो ने सिखों से हर्जाने के रूप में डेढ़ करोड़ रुपया लिया, जिनमें से 50 लाख रुपये सिखों ने अपने कोष से दिए तथा शेष रकम के बदले पंजाब के कुछ प्रांत एवं कश्मीर अंग्रेजो को सौंप दिए। अंग्रेजो ने 50 लाख रुपये लेकर गुलाब सिंह को कश्मीर बेच दिया।
- हेनरी लॉरेंस को लाहौर में ब्रिटिश रेजीडेंट नियुक्त कर दिया गया।
- सिख सैनिक की संख्या सीमित कर दी गयी। अब केवल बारह हजार घुड़सवार और बीस हजार पैदल सैनिक ही रखे जा सकते थे।
- कश्मीर का गुलाब सिंह को बेचा जाना सिखों को पसंद नहीं आया। फलतः लाल सिंह के नेतृत्व में सिखों ने विद्रोह कर दिया। अंग्रेजो ने सिखों को पराजित कर दिया तथा 16 दिसंबर, 1846 ई. को दिलीप सिंह से 'भैरोवाल की संधि' (Treaty of Bharawal, 1846) की। इस संधि के परिणाम निम्नवत रहे-
- दिलीप सिंह के वयस्क होने तक ब्रिटिश सेना का लाहौर में प्रवास सुनिश्चित कर दिया गया।
- लाहौर का प्रशासन आठ सिख सरदारों की एक परिषद को सौंपकर महारानी झिन्दन को 48 हजार रुपये की पेंशन पर शेखपुरा भेज दिया गया।
दितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848 - 49 ई.)
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के पश्चात सिख सेना अपनी शक्ति को पुनः प्रतिषिठत करना चाहती थी। डलहौजी की साम्राज्यवादी नीतियों से भी सिख क्रोधित थे। इसी समय अंग्रेजो ने मुल्तान के गवर्नर को अपदस्य कर दिया। परिणामस्वरूप, जनता ने विद्रोह कर दिया। डलहौजी ने अवसर का लाभ उठाते हुए युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार, द्रितीय आंग्ल-सिख युद्ध प्रारम्भ हो गया।
द्रितीय आंग्ल सिख युद्ध में तीन लड़ाइयाँ लड़ी गयीं। 22 नवम्बर, 1848 ई. को लड़ा गया रामनगर का युद्ध (Battle of Ramnagar , 1848 ) प्रथम था जिसमे अंग्रेजी सेना का नेतृत्व लॉर्ड गफ तथा सिख सेना का नेतृत्व शेरसिंह ने किया। अगला युद्ध 13 जनवरी, 1849 ई. को लड़ा गया चिलियाँवाला का युद्ध (Battle of Chillianwala , 1849 ) था। इस युद्ध में अंग्रेजी और सिख नेतृत्व में कोई परिवर्तन नहीं आया अर्थात लॉर्ड गफ ने अंग्रेजी नेतृत्व की कमान संभाली और शेर सिंह ने सीखो का नेतृत्व किया। यह युद्ध भी अनिर्णीत ही समाप्त हुआ। तदोपरांत, तृतीय युद्ध अर्थात 13 फरवरी, 1849 ई. को लड़ा गया गुजरात का युद्ध (Battle of Gujrat, 1849) निर्णायक सिद्ध हुआ। इसमें अंग्रेजी सेना का नेतृत्व चालर्स नेपियर ने किया। अंग्रेजो ने सिख सेना को पराजित कर दिया। इतिहास में इसे 'तोपों के युद्ध' (War of Cannons, 1849) के नाम से भी जाना जाता है।
द्रितीय आंग्ल-सिख युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरांत 30 मार्च, 1849 ई. को लॉर्ड डलहौजी ने चालर्स नेपियर के नेतृत्व में हेनरी लॉरेंस एवं एलनवरो की इच्छा के विपरीत पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। महाराजा दिलीप सिंह को 5 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन देकर रानी झिन्दन के साथ इंग्लैंड भेज दिया गया तथा दिलीप सिंह से कोहिनूर (Kohinoor ) हीरा लेकर शाही ब्रिटिश राजमुकुट (Crown ) में लगा दिया गया।
वेलेजली की सहायक संधि प्रणाली (Subsidiary Alliance System of Wellesley)
लॉर्ड वेलेजली कंपनी को भारत की सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहता था, लेकिन इसमें मुख्य अवरोध फ्रांसीसियों का बढ़ता प्रभुत्व था। अतः उसका उद्देश्य फ्रांसीसियों के बढ़ते प्रभाव को भी नष्ट करना था। वेलेजली की यह साम्राज्यवादी योजना सहायक संधि (Subsidiary Alliance ) के रूप में सामने आई।
फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने सर्वप्रथम सहायक संधि प्रणाली का प्रयोग करते हुए भारतीय नरेशों को सहायता देने व बदले में उनसे धन लेने की शुरुआत की थी। परन्तु सहायक संधि की व्यापकता वेलेजली के काल में उस समय देखने को मिली, जब उसने इसे अंग्रेजी राज्य के विस्तार का साधन बनाया।
सहायक संधि की विशेषताएं (Features of Subsidiary Alliance)
- वह देशी रियासत जो संधि स्वीकार करेगी, कंपनी की स्वीकृत के बिना अपने राज्य के व्यक्ति को शरण या नौकरी नहीं देगी।
- देशी रियासत कंपनी की अनुमति के बिना किसी अन्य राज्य से युद्ध, संधि या मैत्री नहीं कर सकेगी अर्थात वह अपनी विदेशी नीति कंपनी को सुपुर्द कर देगी।
- देशी रियासतों की रक्षा के लिए कंपनी वहाँ अंग्रेजी सेना रखेगी, जिसका खर्च उस रियासत को ही उठाना पड़ेगा। नकद धनराशि या राज्य का कुछ इलाका सेना के खर्च के लिए कंपनी को सौपना होगा।
- देशी रियासते शासन-प्रबंधन के लिए अपने दरबार में एक ब्रिटिश रेजिडेंट रखेगी।
- भारतीय नरेशों के आंतरिक शासन में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा।
संधि से कंपनी को लाभ (Benefits to the Company from an Alliance)
- देशी रियासतों से फ्रांसीसियों का प्रभाव पूर्णतः समाप्त हो गया क्योकि फ्रांसीसियों को वहाँ नौकरी करने का अवसर प्राप्त नहीं हो सकता था।
- चूँकि देशी रियासतों की विदेशी नीति अब कंपनी के हाथ में चली गई थी, अतः कंपनी द्वारा वे एक-दूसरे से पृथक कर दी गई और इस प्रकार वे अंग्रेजो के विरुद्ध गुट या संघ बनकर तैयार हो गई।
- देशी राज्यों के खर्च पर ही अंग्रेजो की सेना बनकर तैयार हो गयी।
- वह सेना, जो देशी रियासतों की रक्षा के लिए बनायी गयी थी, व्यवहारतः कंपनी द्वारा अपने शत्रुओ और देशी रियासतों को नष्ट करने में उपयोग की जाती थी।
- इससे कम्पनी की साम्राज्यवादी सीमाएँ काफी आगे बढ़ गई।
- इस संधि के द्वारा देशी राज्य कंपनी का संरक्षण स्वीकार कर संतुष्ट हो गए, जिससे कंपनी के विरुद्ध बढ़ते विद्रेष एवं शत्रुता की भावना को नियंत्रित करने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई।
- संधि का देशी रियासतों पर प्रभाव (Impact of Alliance on Princely States)
- विदेशी नीति के मामलो में कंपनी की सर्वोच्चता स्वीकार कर देशी रियासते अपनी स्वतंत्रता के साथ समझौता कर बैठीं।
- यधपि अंग्रेज रेजिडेंटो को राज्यों के आंतरिक मामलो में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं था, फिर भी प्रायः वे इसका उल्लंघन करते थे। परिणामस्वरूप, शासको ने शासन का भार धीरे-धीरे रेजिडेंटो को ही सुपुर्द कर दिया।
- सेना पर अत्यधिक व्यय होने के कारण देशी रियासतों की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी। वे सेना का खर्च उठाने में असमर्थ सिद्ध होने लगी, जिसका परिणाम यह हुआ कि देशी रियासतों को अपने बहुत बड़े प्रदेश से हाथ धो बैठना पड़ा।
- इस संधि के माध्यम से भारतीय नरेशों की राष्ट्रीय भावना, साहस, सैन्य संगठन आदि का अस्तित्व समाप्त हो गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय राज्य निरंतर पतन की ओर अग्रसर होते गये।
- निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि वेलेजली की सहायक संधि से ब्रिटिश हितो की रक्षा हुई जबकि देशी रियासतों को इसके गंभीर दुष्परिणाम झेलने पड़े।
सहायक संधि का क्रियान्वयन (Implementation of Subsidiary Alliance)
- निजाम के साथ -1798 ई.
- मैसूर के साथ – 1799 ई.
- अवध के साथ – 1801 ई.
- मराठा पेशवा के साथ – 1802 ई.
- भोंसले के साथ – 1803 ई.
- सिंधिया के साथ – 1804 ई.
अंततः शीघ्र ही कर्नाटक, तंजौर व सूरत जैसे राज्यों को भी कुशासन के आरोप में कंपनी के संरक्षण में ले लिया गया।
डलहौजी का व्यपगत सिद्धांत (Dalhousie’s Doctrine of Lapse)
- कंपनी के लिए व्यपगत से अभिप्राय था कि पैतृक वारिस न होने की स्थिति में कंपनी अपने अधीनस्थ तथा पराधीन क्षेत्रों को साम्राज्य में मिला सकती थी।
- डलहौजी ने साम्राज्य विस्तार के लिए इसे नया हथियार बनाया। उसने गोद लेने की प्रथा (Practice of Adoption) पर पाबंदी लगाई तथा संतानहीन शासकों के राज्यों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलने का प्रयत्न किया।
- डलहौजी ने भारतीय राज्यों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया-
- प्रथम श्रेणी में वे राज्यों थे जिनके निर्माण में ब्रिटिश सरकार का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष योगदान था तथा ऐसे राज्यों के शासको के गोद लेने पर पूर्णतः पाबंदी लगा दी गई थी।
- द्रितीय क्षेणी के राज्यों के शासको के लिए यह व्यवस्था की गई कि वे गोद लेने के पहले सरकार की सहमति प्राप्त करें। ऐसे राज्य अंग्रेजी सरकार के अधीनस्थ राज्य थे।
- तृतीय क्षेणी में देशी रियासतों को रखा गया था, जिनके शासकों को गोद लेने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी।
व्यपगत सिद्धांत का क्रियान्वयन (Implementation of Doctrine of lapse)
- सतारा (1848 ई.),
- जैतपुर (1849 ई.),
- संभलपुर (1849 ई.),
- बघाट (1850 ई.),
- उदयपुर (1852 ई.),
- झांसी (1852 ई.) तथा नागपुर (1854 ई.)।
व्यपगत सिद्धांत की आलोचना (Criticism of Doctrine of Lapse)
- देशी रियासतों को तीन क्षेणियो में वर्गीकृत करना ही अन्यायपूर्ण था क्योकि देशी राज्यों का निर्माण अंग्रेजो ने नहीं किया था और न ही वे वैधानिक दृष्टि से भारत की सर्वोच्च सत्ता थे। सैद्धांतिक रूप से सभी भारतीय राज्य मुग़ल सम्राट के आधीन थे तथा मुग़ल सम्राट ही भारत का सम्राट था।
- गोद लेने की प्रथा में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं था क्योकि हिन्दुओ में गोद लेने की प्रथा धार्मिक व क़ानूनी रूप से मान्य थी।
- डलहौजी ने अपनी इस नीति से देशी प्रजा में असंतोष की भावना भर दी, जिससे ब्रिटिश विरोधी तत्वों को बढ़ावा मिला। डलहौजी के वापस जाते ही 1857 ई. में ब्रिटिश सरकार ने देशी रियासतों के प्रति अधीनस्थ एकीकरण की नीति अपनाई।
देशी रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति (British Policy towards Princely States)
यधपि ब्रिटिश शासन की रियासतों के प्रति कोई निश्चित नीति नहीं थी, तथापि उन्होंने देश, कारक व परिस्थिति के अनुसार राजनैतिक सर्वोच्चता को प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार की नीतियों का अनुसरण किया। विलियम ली वार्नर ने अपनी पुस्तक ' द नेटिव स्टेटस ऑफ़ इंडिया' (The Native States of India) में रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति को तीन चरणों में वर्गीकृत किया है-
(क) घेरे की नीति, 1765-1813 ई. (Policy of Ring Fence, 1765 – 1813)
(ख) अधीनस्थ पृथक्करण की नीति, 1813-1858 ई. (Policy of Subordinate Isolation, 1813-1858)
(ग) अधीनस्थ संघ की नीति, 1858-1935 ई. (Policy of Subordinate Union, 1858-1935)
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