ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था का भारतीय ग्रामीण जीवन पर प्रभाव (आधुनिक उधोगो का विकास, ब्रिटिश शासन के तहत कारखाना अधिनियम)
आधुनिक भारत का इतिहास
भारत में अंग्रेजों की भू-राजस्व व्यवस्था (British Land Revenue System in India)
ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था का भारतीय ग्रामीण जीवन पर प्रभाव (Impact of British Land Revenue System on Indian Rural Life)
आरम्भ से ही कंपनी भू-राजस्व के रूप में अघिकतम राशि निर्धरित करना चाहती थी। अतः आरम्भ में वारेन हेसिटंग्स के द्वारा फार्मिंग पद्धति की शुरुआत की गयी, जिसके तहत भू-राजस्व की वसूली का अधिकार ठेके के रूप में दिया जाने लगा था। इसका परिणाम यह निकला कि बंगाल में किसानों का शोषण हुआ तथा कृषि उत्पादन में हास् हुआ। आगे कार्नवालिस के द्वारा एक नवीन प्रयोग स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement ) के रूप में किया गया। इसके माध्यम से जमींदार मध्यस्थों को भूमि का स्वामी तथा स्वतंत्र किसानों को अधीनस्थ रैय्यतों के रूप में तब्दील कर दिया गया। सबसे बढ़कर सरकार की राशि सदा के लिए निश्चित कर दी गयी तथा रैय्यतों को जमीदारों की कृपा पर छोड़ दिया गया। राजस्व के अधिकतम निर्धारण ने ग्रामीण समुदाय को कई तरह से प्रभावित किया।
इनमें से कुछ प्रभाव इस प्रकार है:
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वे नकदी फसलों के उत्पादन की ओर उन्मुख हुये, परन्तु कृषि के व्यावसायीकरण के बावजूद भी कोई सुधार नहीं हुआ क्योकि इसका मुख्य अंश जमींदार और बिचौलियों को प्राप्त हुआ।
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भू-राजस्व की राशि अधिकतम रूप में होने के कारण किसानों के पास ऐसा कोई अधिशेष नहीं बच पाता था जिसका कि वे फसल नष्ट होने के पश्चात उपयोग कर सके। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में अकाल एवं भुखमरी और भी बढ़ती गई।
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जमीदारों को कृषि क्षेत्र में निवेश करने में कोई रूचि नहीं थी तथा कृषक निवेश की स्थिति में नहीं थे। अतः कृषि पिछड़ती चली गयी। उत्तर भारत के ग्रामीण जीवन पर स्थायी बंदोबस्त के परिणामस्वरूप पड़ने वाले प्रभाव का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण प्रेमचंद ने अपने उपन्यास गोदान में किया है।
भारत में आधुनिक उधोगो का विकास (Development of Modern Industries in India)
ब्रिटिश भारत में आधुनिक उधोगो की स्थापना का प्रारंभ 1850 ई. से माना जाता है। इससे पूर्व जहाँ एक ओर भारतीय हस्त उधोगो का पतन हो रहा था वही दूसरी ओर कुछ नये उधोगो का जन्म भी हो रहा था। नये प्रकार के उधोगो को विकास दो रूपों में दिखाई दिया- बागान उधोग एवं कारखाना उधोग। अंग्रेजो ने यहाँ सबसे पहले नगदी फसलों पर आधारित बागान उधोग जैसे- नील, चाय, कहवा आदि में ख़ास दिलचस्पी ली। 1857 ई. के बाद कारखाना-आधारित उधोगो का विकास हुआ, जिनमे ये उधोग शामिल थे- कपास, चमड़ा, लोहा, चीनी, सीमेंट, कागज, लकड़ी, कॉंच आदि।
देश में पहले सूती वस्त्र उधोग 'बॉम्बे स्पिनिंग एंड वीविंग कंपनी' की स्थापना एक पारसी उधोगपति कावसजी डाबर ने 1854 ई. में की। भारत में पहला चीनी कारखाना 1909 ई. में और पहला जूट कारखाना 1855 ई. में बंगाल में खोला गया। पहली बार आधुनिक इस्पात तैयार करने का प्रयास 1830 ई. में मद्रास के दक्षिण में स्थिति आर्कट जिले में जोशिया मार्शल हीथ द्वारा किया गया। 1907 ई. में जमशेदजी नौसेरवानजी टाटा के प्रयास से 'टाटा आयरन एण्ड स्टील कंपनी' की स्थापना हुई। इस प्रकार इन उधोगो का क्रमश: विकास होता रहा।
स्थान |
राज्य |
स्थापन वर्ष |
विशेषताएँ |
---|---|---|---|
कुल्टी |
पश्चिम बंगाल |
1870 |
बंगाल आयरन वर्क्स कंपनी |
साकची |
झारखण्ड |
1908 |
भारत में लौह-इस्पात के इसी कारखाने से जमशेदजी टाटा ने उधोग जगत में पाँव रखा। |
हीरापुर |
पश्चिम बंगाल |
1907 |
इसे पहले भारतीय लौह इस्पात कंपनी के नाम से जाना जाता था। |
भद्रावती |
कर्नाटक |
1923 |
पहले मैसूर आयरन एण्ड स्टील कंपनी के नाम से जाना जाता था, बाद में इसका नाम 'विश्वेश्वरैया आयरन एण्ड स्टील कंपनी' कर दिया गया जो सार्वजनिक क्षेत्र की प्रथम इकाई थी। |
बर्नपुर |
पश्चिम बंगाल |
1937 |
पहले स्टील कॉरपोरेशन ऑफ़ बंगाल के नाम से स्थापित इस कारखाने का बाद में 'इंडियन आयरन एण्ड स्टील कंपनी' में विलय कर दिया गया। |
ब्रिटिश भारत में विभिन्न कारखाना अधिनियम (Various Factory Acts in British-India)
भारतीय श्रम पर पहला आयोग 1857 ई. में गठित किया गया। यह लंकाशायर के उधोगोपतियों की माँग पर गठित किया गया था। इसका उद्देश्य भारतीय कारखानों में श्रमिकों के काम करने की परिस्थितियो का अध्ययन करना था।
इसके अलावा ब्रिटिश सरकार ने भारत में अनेक कारखाना अधिनियम लागू किये जिनका विवरण इस प्रकार है:
1881 ई. का कारखाना अधिनियम : लार्ड रिपन के समय में लाये गये इस कारखाना अधिनियम में अल्पायु श्रमिकों को संरक्षण एवं उनके लिए स्वास्थ्य सुरक्षा की व्यवस्था की गई। परंतु यह अधिनियम उन कारखानों पर ही लागू हो सकता था, जहाँ श्रमिकों की संख्या कम से कम 100 हो। इसमें 7 वर्ष से कम आयु के बच्चो को काम करने से प्रतिबंधित किया गया और 7 से 12 वर्ष के बच्चों के काम की अवधि को 9 घंटे निर्धारित किया गया। इसके अलावा कार्यावधि में एक घंटे का आराम तथा महीने में 4 दिन के अवकाश की व्यवस्था भी दी गई।
1891 ई. का कारखाना अधिनियम : लार्ड लैन्सडाउन के समय में लाये गये इस कारखाना अधिनियम में वयस्क श्रमिकों के लाभ की व्यवस्था की गई। यह अधिनियम उन सभी स्थानों पर लागू हुआ जहाँ पर कम से कम 50 श्रमिकों एक साथ काम करते थे। इसमें 9 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखाने में कार्य करने से पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया और 9 वर्ष से 19 वर्ष के बच्चों के कार्यावधि को 7 घंटे प्रतिदिन तय कर दिया गया। महिलाओ के रात्रि के समय 8 बजे से लेकर 5 बजे सुबह तक काम करने पर रोक लगा दी गयी। इनके काम करने की अवधि को 11 घंटे प्रतिदिन निर्धारित किया गया और उनके लिए सप्ताह में एक दिन की छुट्टी की घोषणा भी की गई।
1911 ई. का कारखाना अधिनियम : 1891 ई. के कारखाना अधिनियम को ही संशोधित कर 1911 ई. में प्रस्तुत किया गया और इसमें पुरषों के कार्य करने की अवधि को 12 घंटे प्रतिदिन निश्चित किया गया। लॉर्ड हार्डिंग द्रितीय के समय में लाए गए इस अधिनियम में अल्पायु बच्चों को कारखानों में 7 बजे संध्या से 5 बजे सुबह के बीच कार्य करने से प्रतिबंधित कर दिया गया।
1922 ई. का कारखाना अधिनियम : लॉर्ड रीडिंग के समय में लाया गया यह अधिनियम उन कारख़ानों पर लागू होता था जहाँ पर 20 से अधिक श्रमिक काम करते थे अथवा बिजली का प्रयोग किया जाता था। इस अधिनियम में कारखाने में कार्य करने की बच्चों की आयु को बढ़ाकर 12 से 15 वर्ष के बीच कर दिया गया और इनके कार्य करने की अवधि को कम कर 6 घंटे प्रतिदिन कर दिया गया। ततपश्चात इस अधिनियम में 1923 ई. , 1926 ई. और 1931 में आंशिक रूप से संशोधन किए गये।
1934 ई. का कारखाना अधिनियम : लॉर्ड विलिंगटन के समय में लाये गये इस अधिनियम में मौसमी कारखाने एवं सदैव कार्यरत कारखानों में अंतर स्थापित किया गया। वयस्क श्रमिकों के काम के घंटो को 11 घंटे प्रतिदिन तय किया गया। नियमित रूप से कार्य करने वाले उधोगो या कारखानों में वयस्क श्रमिकों के प्रतिदिन कार्य की अवधि को 10 घंटे निश्चित कर दिया गया और साथ ही श्रमिकों के आराम एवं उनके इलाज की भी व्यवस्था की गई।
1946 ई. का कारखाना अधिनियम : लॉर्ड वेवेल के समय में 1934 ई. के कारखाना अधिनियम को संशोधित के प्रस्तुत किया गया। इस संशोधित अधिनियम में श्रमिकों के कार्य करने की अवधि को 11 घंटे से कम करके 9 घंटे कर दिया गया। साथ ही, 200 से अधिक श्रमिकों के कार्य करने वाले कारखानों में कैंटीनों की व्यवस्था पर जोर दिया गया।
चूँकि ऊपर दिए गये सभी कारखाना अधिनियम ऐसे समय में लाये गये थे जब भारत गुलाम था, अतः इनमें श्रमिकों की सुविधाओं पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। ततपश्चात स्वतंत्र भारत का प्रथम विस्तृत कारखाना अधिनियम 1948 ई. में लाया गया, जिसमे श्रमिकों की स्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में प्रयास किया गया।
ब्रिटिश शासन के तहत कारखाना अधिनियम | |
---|---|
अधिनियम | वायसराय |
1881 ई. का कारखाना अधिनियम : | लॉर्ड रिपन |
1891 ई. का कारखाना अधिनियम : : | लॉर्ड लैन्सडाउन |
1911 ई. का कारखाना अधिनियम : | लॉर्ड हार्डिंग द्रितीय |
1922 ई. का कारखाना अधिनियम : | लॉर्ड रीडिंग |
1934 ई. का कारखाना अधिनियम : | लॉर्ड विलिंगटन |
1946 ई. का कारखाना अधिनियम : | लॉर्ड वेवेल |
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