भारत में ब्रिटिश शासकों की आर्थिक नीति एवं उसका प्रभाव (महालवाड़ी व्यवस्था, धन का बहिर्गमन, विऔद्योगीकरण)
आधुनिक भारत का इतिहास
भारत में अंग्रेजों की भू-राजस्व व्यवस्था (British Land Revenue System in India)
महालवाड़ी व्यवस्था (Mahalwari System)
स्थायी बंदोबस्त और रैय्यतवाड़ी व्यवस्था दोनों के अंतर्गत ग्रामीण समुदाय उपेक्षित ही रहा। आगे महालवाड़ी पद्धति में इस ग्रामीण समुदाय के लिए स्थान निर्धारित करने का प्रयास किया गया। महालवाड़ी व्यवस्था के निर्धारण में विचारधारा और दृष्टिकोण का असर देखने को मिला। इस पर रिकाडो के लगान सिद्धांत का प्रभाव माना जाता है। किन्तु, सूक्ष्म परीक्षण करने पर यह ज्ञात होता है कि महालवाड़ी पद्धति के निर्धारण में भी प्रभावकारी कारक भौतिक अभिप्रेरणा ही रहा तथा विचारधारा का असर बहुत अधिक नहीं था। वस्तुतः अब कंपनी को अपनी भूल का एहसास हुआ।
स्थायी बंदोबस्त प्रणाली दोषपूर्ण थी, यह बात 19 वी सदी के आरम्भिक दशकों में ही स्पष्ट हो गई थी। स्थायी बंदोबस्त के दोष उभरने भी लगे थे। इन्हीं दोषों का परिणाम था कि कंपनी बंगाल में अपने भावी लाभ से वंचित हो गयी। दूसरे, इस काल में कंपनी निरंतर युद्ध और संघर्ष में उलझी हुई थी। ऐसी स्थिति में उसके पास समय नहीं था कि वह किसी नवीन पद्धति का विकास एवं उसका वैज्ञानिक रूप में परीक्षण करे तथा उसे भू-राजस्व व्यवस्था में लागू कर सके। दूसरी ओर, कंपनी के बढ़ते खर्च को देखते हुए ब्रिटेन में औधोगिक क्रांति मि निवेश करने के लिए भी बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता थी। उपर्युक्त कारक महालवाड़ी पद्धति के स्वरूप-निर्धारण में प्रभावी सिद्ध हुए।
महालवाड़ी व्यवस्था
- स्थायी बंदोबस्त तथा रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के बाद ब्रिटिश भारत में लागू कि जाने वाली यह भू-राजस्व की अगली व्यवस्था थी जो संपूर्ण भारत के 30 % भाग दक्कन के जिलों, मध्य प्रांत पंजाब तथा उत्तर प्रदेश (संयुक्त प्रांत) आगरा, अवध पर लागू थी।
- इस व्यवस्था के अंतर्गत भू-राजस्व का निर्धारण समूचे ग्राम के उत्पादन के आधार पर किया जाता था तथा महाल के समस्त कृषक भू-स्वामियों के भू-राजस्व का निर्धारण संयुक्त रूप से किया जाता था। इसमें गाँव के लोग अपने मुखिया या प्रतिनिधियों के द्वारा एक निर्धारित समय-सीमा के अंदर लगान की अदायगी की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते थे।
- इस पद्धति के अंतर्गत लगान का निर्धारण अनुमान पर आधारित था और इसकी विसंगतियों का लाभ उठाकर कंपनी के अधिकारी अपनी स्वार्थ सिद्धि में लग गए तथा कंपनी को लगान वसूली पर लगान से अधिक खर्च करना पड़ा। परिणामस्वरूप, यह व्यवस्था बुरी तरह विफल रही।
ब्रिटिश कालीन भू-राजस्व व्यवस्था | ||
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स्थायी बंदोबस्त ↓ |
रैय्यतवाड़ी ↓ |
महालवाड़ी ↓ |
कार्नवालिस (1793 ) ↓ |
टामस मुनरो एवं रीड (1820 ) ↓ |
होल्ट मैकेंजी (1822 ) ↓ |
बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, बनारस, उत्तरी
कर्नाटक ↓ |
बंबई, मद्रास, असम ↓ |
मार्टिन वर्ड ↓ |
समस्त अंग्रेजी भारत का 19% | समस्त अंग्रेजी भूमि का 51 % ↓ |
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रांत, पंजाब ↓ |
भूमि अधिग्रहण सदैव के लिए जमींदार को ↓ |
भूमि का मालिक किसान ↓ |
समस्त भूमि का 30 % ↓ |
ब्रिटिश सरकार को राजस्व देने की जिम्मेदारी
जमींदार की ↓ |
ब्रिटिश सरकार को राजस्व देने की जिम्मेदारी किसान
की ↓ |
भूमि पर गाँव का अधिकार ↓ |
↓ | कर की दर 33 % से 55 % तक ↓ |
ब्रिटिश सरकार को राजस्व देने की जिम्मेदारी समस्त
गाँवो/गाँवो के मुखियाओं की ↓ |
↓ | ↓ | कर की दर 60 % तक ↓ |
—→ |
प्रभाव |
←— |
↓ →पारंपरिक अर्थव्यवस्था का विघटन |
||
→कृषकों की दरिद्रता | ||
→कृषकों की दरिद्रता | ||
→कृषि में ठहराव तथा अवनति | ||
→पुराने जमीदारों की तबाही तथा नए जमींदारी का उदय | ||
→कृषि का वाणिज्यीकरण |
धन का बहिर्गमन (Drain of Wealth)
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपर्युक्त सभी व्यवस्थाओं के मूल में कंपनी की वाणिज्यवादी प्रकृति व्याप्त थी। धन की निकासी की अवधारणा वाणिज्यवादी सोच के क्रम में विकसित हुई। अन्य शब्दों में, वाणिज्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत धन की निकासी उस स्थिति को कहा जाता है जब प्रतिकूल व्यापार संतुलन के कारण किसी देश से सोने, चाँदी जैसी कीमती धातुएँ देश से बाहर चली जाएँ। माना यह जाता है कि प्लासी की लड़ाई से 50 वर्ष पहले तक ब्रिटिश कंपनी द्वारा भारतीय वस्तुओं की खरीद के लिए दो करोड़ रूपये की कीमती धातु लाई गई थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा कंपनी के इस कदम की आलोचना की गयी थी किंतु कर्नाटक युद्धों एवं प्लासी तथा बक्सर के युद्धों के पश्चात स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आया।
बंगाल की दीवानी ब्रिटिश कंपनी को प्राप्त होने के साथ कंपनी ने अपने निवेश की समस्या को सुलझा लिया। अब आंतरिक व्यापार से प्राप्त रकम, बंगाल की लूट से प्राप्त रकम तथा बंगाल की दीवानी से प्राप्त रकम के योग के एक भाग का निवेश भारतीय वस्तुओं की खरीद के लिए होने लगा। ऐसे में धन की निकासी की समस्या उतपन्न होना स्वाभाविक ही था। अन्य शब्दों में, भारत ने ब्रिटेन को जो निर्यात किया उसके बदले भारत को कोई आर्थिक, भौतिक अथवा वित्तीय लाभ प्राप्त नहीं हुआ। इस प्रकार, बंगाल की दीवानी से प्राप्त राजस्व का एक भाग वस्तुओं के रूप में भारत से ब्रिटेन हस्तांतरित होता रहा। इसे ब्रिटेन के पक्ष में भारत से धन का हस्तांतरण कहा जा सकता है। यह प्रक्रिया 1813 ई. तक चलती रही, किंतु 1813 ई. के चार्टर के तहत कंपनी का राजस्व खाता तथा कंपनी का व्यापारिक खाता अलग अलग हो गया। इस परिवर्तन के आधार पर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि 18 वी सदी के अंत में लगभग 4 मिलियन पौंड स्टर्लिंग रकम भारत से ब्रिटेन की ओर हस्तांतरित हुई। इस प्रकार भारत के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि 1813 ई. तक कंपनी की नीति मुख्यतः वाणिज्यवादी उदेश्य से परिचालित रही जिसका बल इस बात पर रहा कि उपनिवेश मातृदेश के हित की दृष्टि से महत्व रखते है।
गृह -व्यय अधिक हो जाने के कारण इसकी राशि को पूरा करने भारत में निर्यात अधिशेष बरकरार रखा गया। गृह-व्यय की राशि अदा करने के लिए एक विशेष तरीका अपनाया गया। उदाहरणार्थ, भारत सचिव लंदन में कौंसिल बिल जारी करता था तथा इस कौंसिल बिल के खरीददार वे व्यापारी होते थे जो भारतीय वस्तुओ के भावी खरीददार भी थे। इस खरीद के बदले भारत सचिव को पौण्ड स्टर्लिंग प्राप्त होता जिससे वह गृह-व्यय की राशि की व्यवस्था करता था। इसके बाद इस कौंसिल बिल को लेकर ब्रिटिश व्यापारी भारत आते और इनके बदले वे भारतीय खाते से रुपया निकालकर उसका उपयोग भारतीय वस्तुओ की खरीद के लिए करते। इसके बाद भारत में काम करने वाले ब्रिटिश अधिकारी इस कौंसिल बिल को खरीदते। केवल ब्रिटिश अधिकारी ही नहीं, बल्कि भारत में व्यापार करने वाले निजी ब्रिटिश व्यापारी भी अपने लाभ को ब्रिटेन भेजने के लिए कौंसिल बिल की खरीददारी करते लंदन में उन्हें इन कौंसिल बिल के बदले में पौण्ड स्टर्लिंग प्राप्त हो जाता था।
दादाभाई नौरोजी व आर. सी. दत्त जैसे राष्ट्रवादी चिंतको ने धन की निकासी की कटु आलोचना की और इसे उन्होंने भारत के दरिद्रीकरण का एक कारण माना। दूसरी ओर, मोरिंसन जैसे ब्रिटिश पक्षधर विद्धान निकासी की स्थिति को अस्वीकार करते है। उनके द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया कि गृह-व्यय की राशि बहुत अधिक नहीं थी और फिर यह रकम भारत के विकास के लिए जरुरी था। उन्होंने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया कि अंग्रेजो ने भारत में अच्छी सरकार दी तथा यहाँ यातायात और संचार व्यवस्था एवं उधोगों का विकास किया और फिर ब्रिटेन ने बहुत कम ब्याज पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार से एक बड़ी रकम भारत को उपलब्ध करवायी।
धन का बहिर्गमन : राष्ट्रवादी विचारधारा
'धन-निकासी सिद्धांत' के तहत आर्थिक निकासी उस समय होता है, जब किसी देश के प्रतिकूल व्यापार संतुलन के फलस्वरूप सोने व चांदी का बर्हिगमन होता है। 'धन की निकासी' के सिद्धांत को सर्वप्रथम 1867 ई. में लंदन में हुई 'ईस्ट इंडिया एसोसिएशन' की एक बैठक में 'दादा भाई नौरोजी' द्वारा उठाया गया। अपने निबंध (England Debt to India ) में उन्होंने इस मुद्दे को उठाया। उन्होंने कहा- "भारत में अपने शासन की कीमत के रूप में ब्रिटेन, इस देश की सपंदा को छीन रहा है। भारत में वसूल किये गए कुल राजस्व का लगभग चौथाई भाग देश के बाहर चला जाता है तथा इंग्लैंड के संसाधनों में जुड़ जाता है।"संन 1896 ई. में 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' ने कलकत्ता अधिवेशन में औपचारिक रूप से इसे स्वीकृत करते हुए कहा कि वर्षो से निरंतर देश से हो रही संपत्ति की निकासी देश में अकालों के लिए और देशवासियो की गरीबी के लिए जिम्मेदार है।
विऔद्योगीकरण (Deindustrialization)
किसी भी देश के उधोगों के क्रमिक हास अथवा विघटन को ही विऔद्योगीकरण कहा जाता है। भारत में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत हस्तशिल्प उधोगों का पतन सामने आया, जिसके परिणामस्वरूप कृषि पर जनसंख्या का बोझ बढ़ाता गया। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत विऔद्योगीकरण को प्रेरित करने वाले निम्नलिखित घटक माने जाते है:
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प्लासी और बक्सर के युद्ध के बाद ब्रिटिश कंपनी द्वारा गुमाश्तों के माध्यम से बंगाल के हस्तशिल्पियों पर नियंत्रण स्थापित करना अर्थात उत्पादन प्रक्रिया में उनके द्वारा हस्तक्षेप करना।
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1813 ई. के चार्टर एक्स के द्वारा भारत का रास्ता ब्रिटिश वस्तुओ के लिए खोल दिया गया।
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भारतीय वस्तुओ पर ब्रिटेन में अत्यधिक प्रतिबंध लगाये गये, अर्थात भारतीय वस्तुओ के लिए ब्रिटेन का द्वार बंद किया जा रहा था।
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भारत में दूरस्थ क्षेत्रों का भेदन रेलवे के माध्यम से किया गया। दूसरे शब्दों में, एक ओर जहाँ दूरवर्ती क्षेत्रों में भी ब्रिटिश फैक्ट्री उत्पादों को पहुँचाया गया, वही दूसरी ओर कच्चे माल को बंदरगाहों तक लाया गया।
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भारतीय राज्य भारतीय हस्तशिल्प उधोगों के बड़े संरक्षक रहे थे, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवादी प्रसार के कारण ये राजा लुप्त हो गए इसके साथ ही भारतीय हस्तशिल्प उधोगों ने अपना देशी बाजार खो दिया।
हस्तशिल्प उधोगों के लुप्तप्राय होने के लिए ब्रिटिश सामाजिक व शैक्षणिक नीति को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसने एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जिसका रुझना और दृष्टिकोण भारतीय न होकर ब्रिटिश था। अतः अंग्रेजी शिक्षाप्राप्त इन भारतीयों ने ब्रिटिश वस्तुओ को ही संरक्षण प्रदान किया।
भारत में 18 वीं सदी में दो प्रकार के हस्तशिल्प उधोग आस्तित्व में थे- ग्रामीण उधोग और नगरीय दस्तकारी। भारत में ग्रामीण हस्तशिल्प उधोग यजमानी व्यवस्था (Yajamani System) के अंतर्गत संगठित था। नगरीय हस्तशिल्प उधोग अपेक्षाकृत अत्यधिक विकसित थे। इतना ही नहीं पश्चिमी देशो में इन उत्पादों की अच्छी-खासी माँग थी। ब्रिटिश आर्थिक नीति ने दोनों प्रकार के हस्तशिल्प उधोगों को प्रभावित किया। नगरीय हस्तशिल्प उधोगों में सूती वस्त्र उधोग अत्यधिक विकसित था। कृषि के बाद इसी क्षेत्र का स्थान था, किन्तु ब्रिटिश माल की प्रतिस्पर्धा तथा भेदभावपूर्ण ब्रिटिश नीति के कारण सूती वस्त्र उधोग का पतन हुआ।
अंग्रेजो के आने से पूर्व बंगाल में जूट के वस्त्र की बुनाई भी होती थी। लेकिन 1835 ई. के बाद बंगाल में जूट हस्तशिल्प की भी ब्रिटिश मशीनीकृत उधोग के उत्पाद को भी धक्का लगा। ब्रिटिश शक्ति की स्थापना से पूर्व भारत में कागज़ उधोग का भी प्रचलन था, किन्तु 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में चालर्स वुड की घोषणा से स्थिति में नाटकीय परिवर्तनं आया। इस घोषणा के तहत स्पष्ट रूप से यह आदेश जारी किया गया था कि भारत में सभी प्रकार के सरकारी कामकाज के लिए कागज की खरीद ब्रिटेन से ही होगी। ऐसी स्थिति में भारत में कागज उधोग को धक्का लगाना स्वाभाविक ही था। प्राचीन काल से ही भारत बेहतर किस्म के लोहे और इस्पात के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था, किंतु ब्रिटेन से लौहे उपकरणो के आयात के कारण यह उधोग भी प्रभावित हुए बिना न रह सका।
कृषि का व्यावसायीकरण (Commercialization of Agriculture)
एडम स्मिथ के अनुसार व्यावसायीकरण उत्पादन को प्रोत्साहन देता है तथा इसके परिणामस्वरूप समाज में समृद्धि आती है, किंतु औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत लाये गए व्यावसायीकरण ने जहाँ ब्रिटेन को समृद्ध बनाया, वहीं भारत में गरीबी बढ़ी। ' कृषि के क्षेत्र में व्यावसायिक संबंधो तथा मौद्रिक अर्थव्यवस्था संबंध तथा कृषि को मौद्रीकरण (Monetization of Agriculture ) कोई नई घटना नहीं थी क्योकि मुगलकाल में भी कृषि अर्थव्यवस्था में ये कारक विधमान थे। राज्य तथा जागीदार दोनों के द्वारा राजस्व की वसूल में अनाजों के बदले नगद वसूली पर बल दिए जाने को इसके कारण के रूप में देखा जाता है। यह बात अलग है ब्रिटिश शासन में प्रक्रिया को और भी बढ़ावा मिला। रेलवे का विकास तथा भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ जाना भी इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कारक सिद्ध हुआ।
ब्रिटिश शासन के अंतर्गत कृषि के व्यावसायीकरण को जिन कारणों ने प्रेरित किया वे निम्नलिखित थे:
- भारत में भू-राजस्व की रकम अधिकतम निर्धारित की गयी थी। परम्परागत फसलों के उत्पादन के आधार पर भू-राजस्व की इस रकम को चुका पाना किसानो के लिए संभव नहीं था। ऐसे में नकदी फसल के उत्पादन की ओर उनका उन्मुख होना स्वाभविक ही था।
- ब्रिटेन में औधोगिक क्रांति आरंभ हो गयी थी तथा ब्रिटिश उधोगों के लिए बड़ी मात्रा में कच्चे माल की जरूरत थी। यह सर्वविदित है कि औधोगीकरण के लिए एक सशक्त कृषि आधार का होना जरुरी है। ब्रिटेन में यह आधार न मौजूद हो पाने के कारण ब्रिटेन में होने वाले औधोगीकरण के लिए भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का व्यापक दोहन किया गया।
- औधोगीकरण के साथ ब्रिटेन में नगरीकरण की प्रकिया को भी बढ़ावा मिला था। नगरीय जनसंख्या की आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में खाद्दान्न के निर्यात को भी इसके एक कारण के रूप में देखा जाता है।
- किसानों में मुनाफा प्राप्त करने की उत्प्रेरणा भी व्यावसायिक खेती को प्रेरित करने वाला एक कारक माना जाता है।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि औपनिवेशिक सरकार ने भारत में उन्ही फसलों के उत्पादन को बढ़ावा दिया जो उनकी औपनिवेशिक माँग के अनुरूप थी। उदाहरण के लिए- कैरिबियाई देशो पर नील के आयात की निर्भरता को कम करने के लिए उन्होंने भारत में नील के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया। इस उत्पादन को तब तक बढ़ावा दिया जाता रहा जब तक नील की माँग कम नहीं हो गयी। नील की माँग में कमी सिंथेटिक रंग के विकास के कारण आई थी। उसी प्रकार, चीन को निर्यात करने के लिए भारत में अफीम के उत्पादन पर जोर दिया गया। इसी प्रकार, इटैलियन रेशम पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए बंगाल में मलबरी रेशम के उत्पादन को बढ़ावा दिया गया। भारत में छोटे रेशो वाले कपास का उत्पादन होता था जबकि ब्रिटेन और यूरोप में बड़े रेशे वाले कपास की माँग थी।
इस माँग की पूर्ति के लिए महराष्ट्र में बड़े रेशे वाले कपास के उत्पादन को प्रोत्साहित किया गया। उसी तरह ब्रिटेन में औधोगीकरण और नगरीकरण की आवश्यकताओ को देखते हुए कई प्रकार की फसलों के उत्पादन पर बल दिया गया। उदाहरणार्थ, चाय और कॉफी बागानों का विकास किया गया। पंजाब में गेहूँ, बंगाल में पटसन तथा दक्षिण भारत में तिलहन के उत्पादन पर जोर देने को इसी क्रम से जोड़कर देखा जाता है। कृषि के व्यवसायीकरण के प्रभाव पर एक दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भले ही सीमित रूप में ही सही, किंतु भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक प्रभाव भी देखा गया। इससे स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ी लेकिन इसी के परिणामस्वरूप अखिल भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास हुआ। किसानों को इस व्यावसायीकरण से कुछ खास क्षेत्रों में , उदाहरण के लिए डक्कन का कपास उत्पादन क्षेत्र तथा कृष्ण, गोदावरी एवं कावेरी डेल्टा क्षेत्र में, लाभ भी प्राप्त हुआ।
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