भारत में ब्रिटिश शासकों की आर्थिक नीति एवं उसका प्रभाव (कार्नवालिस, स्थायी भू-राजस्व, रैय्यतवाड़ी व्यवस्था)

आधुनिक भारत का इतिहास

भारत में अंग्रेजों की भू-राजस्व व्यवस्था (British Land Revenue System in India)

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स्थायी भू-राजस्व व्यवस्था (इस्तमरारी बंदोबस्त) (Permanent Land Revenue System)


कंपनी के अंतर्गत बंगाल में भू-राजस्व व्यवस्था को निर्धारण का प्रश्न खड़ा हुआ, जब ब्रिटिश कंपनी को बंगाल की दीवानी प्राप्त हुई। आरम्भ में लॉर्ड क्लाइव ने भारतीय अधिकारियो के माध्यम से ही भू-राजस्व की वसूली जारी रखी तथा भू-राजस्व व्यवस्था में परम्परागत ढाँचे को ही बरकरार रखा। भू-राजस्व की अधिकतम वसूली पर कंपनी शुरू से ही बल देती थी। इसके पीछे उसका उदेश्य भू-राजस्व संग्रह से प्राप्त एक बड़ी रकम का व्यापारिक वस्तुओं की खरीद में निवेश करना था। इसके अतिरिक्त सैनिक एवं अन्य प्रकार के खर्च को भी पूरा करना कंपनी का उदेश्य था। अतः बंगाल कि दीवानी प्राप्त करने के शीघ्र बाद ही कंपनी ने बंगाल में भू-राजस्व कि रकम बढ़ा दी। फिर भी कंपनी भारतीय अधिकारियों के माध्यम से ही भू-राजस्व की वसूली करती है। भू-राजस्व की वसूली करती है। भू-राजस्व की वसूली की देख-रेख ब्रिटिश अधिकारियो द्वारा ही की जाती थी। किन्तु, इस व्यवस्था का दुष्परिणाम यह रहा कि इस प्रकार की दोहरी व्यवस्था ने एक प्रकार के भष्टाचार को जन्म दिया तथा किसानों का भरपूर शोषण आरम्भ हुआ। सन 1769 - 70 ई. के भयंकर अकाल को अंग्रेजों कि इसी राजस्व नीति के परिणाम के रूप में देखा जाता है।

1793 ई. में कार्नवालिस ने भू-राजस्व प्रबंधन के लिए स्थायी बंदोबस्त को लागू किया। इसके द्वारा लागू किए गए भू-राजस्व सुधार के दो महत्वपूर्ण पहलू सामने आये:

  1. भूमि में निजी सम्पत्ति की अवधारणा को लागू करना, तथा
  2. स्थायी बंदोबस्त

लॉर्ड कार्नवालिस की पद्धति में मध्यस्थों और बिचौलियों को भूमि का स्वामी घोषित कर दिया गया। दूसरी ओर, स्वतंत्र किसानों को अधीनस्थ रैय्यत के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और सामुदायिक सम्पत्ति को जमींदारों के निजी स्वामित्व में रखा गया। भूमि को विक्रय योग्य बना दिया गया। जमींदारों को एक निश्चित तिथि को भू-राजस्व सरकार को अदा करना होता था। 1793 ई. के बंगाल रेग्युलेशन के आधार पर 1794 ई. में 'सूर्यास्त कानून' (Sunset Law ) लाया गया, जिसके अनुसार अगर एक निश्चित तिथि को सूर्यास्त होने तक जमींदार जिला कलेक्टर के पास भू-राजस्व की रकम जमा नहीं करता तो उसकी पूरी जमींदारी नीलाम हो जाती थी। इसके बाद 1799 और 1812 ई. के रेग्युलेशन के आधार पर किसानों को पूरी तरह जमींदारों के नियंत्रण में कर दिया गया, अर्थात प्रवधान किया गया कि यदि एक निश्चित तिथि को किसान जमींदार को भू-राजस्व की रकम अदा नहीं करते तो जमींदार उनकी चल और अचल दोनों प्रकार की सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकता है। इसका परिणाम हुआ कि भू-राजस्व कि रकम अधिकतम रूप में निर्धारित की गयीं तथा इसके लिए 1790 - 91 ई. के वर्ष को आधार वर्ष बनाया गया। निष्कर्षतः 1765 - 93 के बीच कंपनी ने बंगाल में भू-राजस्व की दर में दुगुनी बढ़ोतरी कर दी।

  • लॉर्ड कार्नवालिस ने भू-राजस्व वसूली की स्थायी व्यवस्था लागू की। आरंभ में यह व्यवस्था दस वर्ष के लिए लागू कि गयीं थी, किंतु 1793 ई. में इसे स्थायी बंदोबस्त में परिवर्तित कर दिया गया।

  • ब्रिटिश भारत के 19% भाग पर यह व्यवस्था थी। बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश के वाराणसी तथा उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्र में लागू थी।

  • इस व्यवस्था में जमींदारों को भूस्वामी के रूप में मान्यता दी गयीं। इसके अंतर्गत जमींदार अपने क्षेत्रों से भू-राजस्व की वसूली का 1/11 वां भाग अपने पास रखता था तथा शेष हिस्सा (10/11वां ) कंपनी के पास जमा कराता था।

  • इस व्यवस्था के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया कि जमींदार कि मृत्यु के उपरांत उसकी भूमि उसके उत्तराधिकारियों में चल संपत्ति की भाँति विभाज्य होगी।

  • कार्नवालिस ने 1794 ई. में 'सूर्यास्त कानून' बनाया। इसके तहत यह घोषित किया गया कि यदि पूर्व निर्धारित तिथि के सूर्यास्त तक सरकार को लगान नहीं दिया गया तो जमींदारी नीलाम हो जाएगी।

कार्नवालिस की पद्धति मुख्यतः भौतिक अभिप्रेरणा से परिचालित थी। वस्तुतः स्थायी बंदोबस्त लागू करने के पीछे कार्नवालिस के कई उदेश्य थे।

(1) उसका मानना था कि इस पद्धति को लागू करने के बाद कंपनी को भू-राजस्व की रकम अधिकतम तथा स्थायी रूप से प्राप्त होगी।

(2) कृषि के विस्तार का लाभ सरकार के बजाय जमींदारों को प्राप्त होगा।

(3) जमींदार प्रगतिशील जमींदार सिद्ध हो सकेंगे। परिणामतः वे कृषि में निवेश करने के लिए उन्मुख होंगे। अतः कृषि का विकास होगा।

(4) जमींदारी की खरीद-बिक्री की व्यवस्था के कारण नगरीय क्षेत्र में मुद्रा का आगमन होगा।

(5) उसका विश्वास था कि कृषि के क्षेत्र में होने वाला विकास, व्यापार- वाणिज्य के विकास को भी बढ़ावा देगा क्योकि बंगाल से निर्यात कि जाने वाली अधिकतर वस्तुएँ कृषि उत्पाद से जुडी हुई थी। यधपि भू-राजस्व में सरकार का अंश स्थायी रूप में निश्चित हो जायेगा तथापि, समय-समय पर व्यापारिक वस्तुओं पर कर की राशि में वृद्धि कर सरकार उसकी भरपाई कर सकेगी।

(6) स्थायी बंदोबस्त को लागू करने के पश्चात सरकार प्रशासनिक झंझटो से बच सकेगी क्योकि जमींदारों के माध्यम से भू-राजस्व कि वसूली अपेक्षाकृत आसान हो जायेगी। उसे एक राजनैतिक लाभ प्राप्त होने कि आशा थी कि इस व्यवस्था को लागू करने के पश्चात एक ब्रिटिश समर्थक जमींदार वर्ग तैयार हो जायेगा।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari System)


सामान्यतया रैय्यतवाड़ी व्यवस्था एक वैकल्पिक व्यवस्था थी जो स्थायी बंदोबस्त के साथ कंपनी के मोहभंग होने के कारण एक विकल्प के रूप में सामने आई। इस व्यवस्था के लिए उत्तरदायी एक महत्वपूर्ण कारण विचारधारा एवं दृष्टिकोण का प्रभाव था। अन्य शब्दों में ऐसा माना जाता है कि उन्नीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में भारत में किये जाने वाले भू-राजस्व सुधार की प्रक्रिया शास्त्रीय अर्थशास्त्र (Classical Economies) तथा रिकार्डो के लगान सिद्धांत (Ricardo’s Theory of Rent) से प्रभावित थी।

रिकार्डो का यह मानना था कि कृषि उत्पादन से कृषि उत्पादन से कृषि उपकरण के मूल्य एवं किसानों के श्रम के मूल्य के अंश को अलग करने से जो रकम बचती है, वह विशुद्ध अधिशेष (Net Surplus) होता है। लगान की दृष्टि से उसके एक भाग पर सरकार अपना दावा कर सकती है। उसी प्रकार जमींदार एक निर्भर वर्ग है जो स्वयं तो उत्पादन में हिस्सा नहीं लेता लेकिन केवल भूमि पर स्वामित्व के आधार पर वह भूमि के अधिशेष पर अपना दावा करता है। अतः यदि उस पर कर लगाया जाता है तो भूमि का उत्पादन दुष्प्रभावित नहीं होगा। मुनरो और एल्फिंस्टन जैसे ब्रिटिश अधिकारियों पर स्कॉटिश प्रबोधन (Scottish Enlightenment) का भी असर माना जाता है। स्कॉटिश प्रबोधन के तहत जमीदारों की आलोचना की गयी थी तथा स्वतंत्र किसानों में आस्था प्रकट की गयी थी। इसके अतिरिक्त, रैय्यतवाड़ी व्यवस्था पर पृतसत्तावादी दृष्टिकोण (Patriarchal Approach) का भी प्रभाव माना जाता है। मुनरो का यह मानना था कि दक्षिण भारत में भूमि पर राज्य का ही स्वामित्व रहा था तथा राज्य प्रत्यक्ष रूप से भू-राजस्व की वसूली करता रहा था। राज्य का नियंत्रण कमजोर पड़ने के बाद पोलीगार जैसे बिचौलिये, जो स्थानीय जमींदार थे, ने भू-राजस्व के संग्रह की शक्ति अपने हाथों में ले ली।

रैय्यतवाड़ी पद्धति को लागू करने के पीछे निम्नलिखित दो उद्देश्य थे:

  1. राज्य की आय में वृद्धि
  2. रैय्यतों की सुरक्षा

पहला उद्देश्य तो पूरा हुआ, लेकिन दूसरा उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता क्योकि शीघ्र ही किसानों ने ऐसा अनुभव किया कि कई जमीदारों के बदले अब राज्य सरकार ही बड़े जमींदार की भूमिका निभा रही थी। भू-राजस्व की राशि रैय्यतवाड़ी क्षेत्र में अधिकतम रूप में रखी गयी तथा उसका समय-समय पर पुनर्निरीक्षण किया गया। वस्तुतः स्थिति यह थी कि किसान इतनी बड़ी राशि चुकाने में असमर्थ थे। नतीजा यह हुआ कि वे भू-राजस्व की रकम तथा अन्य आवश्यकताओ को पूरा करने हेतु महाजनो से कर्ज लेने लगे और ऋण जाल में फँसते चले गये। चूँकि भू-राजस्व अत्यधिक होने के कारण भूमि की ओर लोगों का आकर्षण कम हो गया। अतः आंरभ में महाजनो ने भूमि अधिग्रहण के संबंध में रूचि कम दिखाई। परन्तु 1836 ई. के पश्चात बॉम्बे तथा 1855 ई. के बाद मद्रास प्रेसीडेन्सी में गैर-कृषक वर्ग का आकर्षण भूमि के प्रति बढ़ गया। अब धीरे-धीरे भूमि का हस्तांतरण किसानों से महाजनो की ओर होने लगा। दूसरी ओर, रैय्यतवाड़ी क्षेत्र में कुछ समृद्ध किसानों ने भूमि को खरीदकर अपनी जोत को अत्यधिक बढ़ा लिया और वे फिर भूमिहीन कृषको को बटाई पर भूमि देने लगे। इस स्थिति को कृत्रिम जमींदार वर्ग के उदय के रूप में देखा जाता है।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था : एक नजर में

  • भू-राजस्व प्रबंधन के विषय में ब्रिटिश भारत में लागू की गयी स्थायी बंदोबस्त के बाद यह दूसरी व्यवस्था थी, जिसके सूत्रधार थामस मुनरो और कैप्टन रीड थे।

  • 1792 ई. में कैप्टन रीड ने रैय्यतवाड़ी व्यवस्था को सर्वप्रथम तमिलनाडु के बारामहल जिले में लागू किया।

  • यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत के 51 % भाग (मद्रास बंबई के कुछ हिस्से, पूर्वी बंगाल, असम, कुर्ग) पर लागू की गई।

  • इस व्यवस्था के अंतर्गत रैय्यतों को भूमि का मालिकाना हक़ दिया गया, जिसके द्वारा ये प्रत्यक्ष रूप से सीधे या व्यक्तिगत रूप से भू-राजस्व अदा करने के लिए उत्तरदायी थे।

  • इस पद्धति में किसान को 33 % से 55 % के बीच लगान कंपनी को अदा करना होता था। 1836 ई. के बाद विंगेर और गोल्डस्मिथ द्वारा इस व्यवस्था में सुधार किए गए।


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