प्रारंभिक परीक्षा : सामान्य अध्ययन (राज्यव्यवस्था) - मूल अधिकार व विशेषतायें

Polity

राज्यव्यवस्था : मूल अधिकार (Fundamental Rights)


ये अमेरिका से लिए गये है और संविधान के भाग (3) में Article 12 - Article 35 तक पाये जाते है। ये वो अधिकार हैं जो व्यक्ति के भौतिक व नैतिक विकास के लिए अनिवार्य माने जाते है व जिन्हें संविधान का विशेष संरक्षण प्राप्त है। भारत में अधिकारों को हम निम्न भागों में बांट सकते हैं:
  • मौलिक: संविधान के भाग 3 में वर्णित है। (Art. 12 - 35)
  • सवैधानिक अधिकार: संविधान में भाग 3 से बाहर प्राप्त अधिकार, Art. - 300A - संम्पत्ति का अधिकार, Art. 301 अंतर्राज्जीय व्यापार अधिकार।
  • क़ानूनी / विधिक अधिकार: जो संसद के कानून की देन है - (मातृत्व अवकाश, सेवा का अधिकार, मतदान अधिकार)।
  • मानवाधिकार: ये वे अधिकार है जो व्यक्ति को राज्य का नागरिक होने के नाते नहीं बल्कि मानव होने के नाते प्राप्त होते हैं, ये मानवीय गरिमापूर्ण जीवन के लिए अतिआवश्यक है। ये मानव होने की अनिवार्य शर्त है अतः प्रत्येक मानव को जन्म से ही प्राप्त है भले ही संविधान / कानून उन्हें स्वीकारें या नहीं।

मौलिक अधिकारों को संविधान तीन सरक्षण देता है।

  • इनका उल्लंधन होने पर व्यक्ति Art 32 के तहत व्यक्ति सीधे सुप्रीम कोर्ट जा सकता है।
  • मौलिक अधिकारों का निलंबन विशेष प्रक्रिया से तथा राष्ट्रीय आपातकाल द्धारा किया जाता है।
  • मौलिक अधिकारों में संशोधन विशेष बहुमत से किया जाता है।

इनकी विशेषतायें


  • ये असीमित या निरपेक्ष नहीं है। (Absolute) ये प्रवर्तनीय है अर्थात लागू करना आवश्यक है।
  • इनका स्वरूप नकारात्मक / निषेधात्मक है, तथा अभिव्यक्ति ना के रूप में की गई है।
  • कुछ मौलिक अधिकार भारत में केवल नागरिक को प्राप्त है, किन्तु कुछ देश के नागरिकों व विदेशी नगरिकों दोनों को प्राप्त है।
  • कुछ मौलिक अधिकार केवल राज्यो के विरुद्ध व कुछ राज्य व नीति दोनों के विरुद्ध हैं।

ये भारत के संविधान का मैग्नाकार्टा (Magna Carta) है।
यह ब्रिटेन इतिहास का दस्तावेज है, सन् 1215 में सम्राट जॉन का जनप्रतिनिधियो से समझौता हुआ। जनता के अधिकारों की रक्षा का यह विश्व का पहला दस्तावेज था। मूल संविधान में 7 प्रकार के मूल अधिकार है| पर बाद में 44वां संशोधन 2002 - 21(A) शिक्षा का अधिकार जोड़ा गया।

वर्तमान में कुल छः (6) प्रकार के मौलिक अधिकार हैं।

  1. समानता का अधिकार (Art.14 से 18 तक)
  2. स्वतंत्रता का अधिकार (Art. 19, 20, 21 (21-A) शिक्षा 22)
  3. शोषण के विरुद्ध (Art. 23, 24 )
  4. धार्मिक स्वतत्रंता (Art. 25, 26, 27, 28 )
  5. सास्कृतिक व शैक्षिक (Art. 29, 30 )
  6. संवैधानिक उपचारो का अधिकार (Art. 32 )

नोट: Article 31 को 44वें संशोधन में हटाया गया था। Art. 33 , 34 , 35 में कोई अधिकार नहीं है बल्कि अन्य से सम्बंधित चीजे ही है।

भारत में विधि के समक्ष समानता के कुछ अपवाद:

  • राष्ट्रपति व राज्यपाल के कई विशेषाधिकार है पद के दायित्व से सम्बंधित निर्णय के लिए किसी न्यायालय में आजीवन कोई कार्यवाही नहीं हो सकती।
  • कार्यकाल के दौरान आपराधिक मामले में किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं हो सकती।
  • दीवानी मामले में दो माह का नोटिस देकर न्यायालय में कार्यवाही की जा सकती है।
  • इनके खिलाफ परमादेश रिट जारी नहीं होगा।
  • भारत में विदेशी कूटनीतिज्ञों को विशेषाधिकार है।
  • सांसदों व विधायको (MLA ) को प्राप्त विशेषाधिकार।
  • न्यायधीशों को प्राप्त विशेषाधिकार।

विधियों का समान संरक्षण - यह सकारात्मक अवधारणा है - समान परिस्थिति में कानूनों को समान रूप से लागू किया जायेगा।

  • यह अनुपातिक समानता पर आधारित है।
  • यह USA से लिया गया है।

Article 15 ( धर्म , जाति, मूलवंश, क्षेत्र, लिंग, निवास के आधार पर सार्वजनिक स्थलों पर भेदभाव का निषेध)


इसके पांच (5) अपवाद है

  • महिलाये, बच्चे, SC, ST, पिछला वर्ग: इनके पक्ष में सार्वजनिक स्थलों पर भेदभाव हो सकता है।
  • 93वां संशोधन 2005 द्वारा Art. 15 (5 ) जोड़ा गया, शिक्षा संस्थाओं (निजी संस्थाओ सहित) में पिछड़े वर्गों हेतु विशेष प्रावधान किये जा सकते है।
  • इसका एकमात्र अपवाद अल्पसंख्यक शिक्षा संख्या होगी।
  • संसद ने उच्च शिक्षा संस्थान ( Reservation in admission ) Act 2006 लागु किया इसके द्धारा OBC को 27 % सीटे आरक्षित की।

Article 16


राज्य के अधीन नियोजन में धर्म, जाति, लिंग, मूलवंश, क्षेत्र, निवास, आदि के आधार पर राज्य अपने नागरिको में भेदभाव नहीं करेगा व हर व्यक्ति को अवसर की समानता मिलेगी।

इसके 3 अपवाद है

  • संसद कानून बनाकर किसी क्षेत्र में निवास को उस क्षेत्र में रोजगार पाने की शर्त बना सकती है।
  • धार्मिक संस्था से सम्बंधित पद उस धर्म विशेष के अनुयायियों के लिए आरक्षित हो सकते है।
  • पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान किये जा सकते है।

आरक्षण का विपक्ष


आलोचकों के अनुसार आरक्षण अवसर की समानता के विरुद्ध है। आरक्षण के कारण योग्यता की उपेक्षा होती है व इससे सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित होती है। आरक्षण के कारण स्वयं आरक्षित श्रेणियों में स्तरीकरण बढ़ रहा व मौजूदा व्यवस्था में कुछ खास लोग ही इसका लाभ ले पाते है। आरक्षण के कारण आरक्षित श्रेणियों में निर्भरता एवं मनोविकार बढ़ रहा है। भारत में आरक्षण राजनितिक कारणों से प्रतिदिन नये रूप ले रहा है जो एक प्रकार से नये प्रकार की असमानता को जन्म देता है इसे Reverse Discrimination कहते है। भारत में आरक्षण व्यवस्था के कारण राजनीति में जाती का महत्व बढ़ गया हैं।

आरक्षण का पक्ष


  • आरक्षण संविधान में वर्णित समानता के आदर्श का विरोध नहीं है क्योंकि भारत का संविधान प्रधानतः आनुपातिक समानता को स्वीकारता है।
  • आरक्षण से सेवा की गुणवत्ता प्रभावित होने का तर्क सही नहीं क्योंकि सेवाओं में चयन के बाद प्रशिक्षण द्धारा योग्यता उत्पन्न की जाती है।
  • तथ्य ये बताते है की अनेक सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
  • आरक्षण समाज के कमजोर वर्गों के लिए है जो हजारो वर्षो से शोषित रहे हैं यह एक तरह से समाज द्वारा मुआवजे की तरह है।
  • आरक्षण के कारण नीति निर्माण व क्रियान्वयन के कारण निम्न जातियो की भूमिका बढ़ेगी जिससे जातीय श्रेष्ठता वाले विचारो को श्रेष्ठता मिलेगी।

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