मास्टर स्ट्रैटेजी : प्रारंभिक परीक्षा सामान्य अध्ययन - पेपर - 1 (पर्यावरण, पारिस्थितिकी एवं जैव विविधिता)

सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा की तैयारी कैसे करें?

मास्टर स्ट्रैटेजी: पर्यावरण, पारिस्थितिकी एवं जैव विविधिता

नवीन पाठ़्यक्रम के अंतर्गत पर्यावरण, पारिस्थितिक समबंधित मुद़्दों को अलग खण्ड के रूप में सम्मिलित किया गया है। पहले यह भूगोल खण्ड के अन्तर्गत शामिल था। यह अत्यंत महत्वपूर्ण खण्ड है, वर्ष २०११ में इस खण्ड से २० प्रश्न पूंछे गये थे तथा वर्ष २०१२ में भी २० प्रश्न इसी खण्ड से आये थे। वर्तमान में भी पर्यावरण, पारिस्थितिकी एवं जैव विविधिता खण्ड का महत्व  लगातार प्रश्नों के बढ्ते क्रम को देखने से स्पष्ट हो जाता है।

इस खण्ड में पूंछे जाने वाले प्रश्न ऐसे होते है जिनके बारे में हम प्राय: पढते या सुनते रहते हैं। उदाहरण के लिये - ग्लोबल वार्मिंग, अम्लीय वर्षा या फ़िर ओजोन परत के क्षरण जैसे विषयों से जुडे होते हैं। इस प्रकार यह खण्ड व्यवहारिक एवं विश्लेषणात्मक प्रकृति के प्रश्नों से परिपूर्ण होते हैं। इस खण्ड से पशु-पक्षियों, पेड-पौधों की विलुप्त होती प्रजातियों, नई खोजी गई प्रजाति अथवा किसी विशिष्ट कारण से चर्चा में रही प्रजाति के विषय में प्रश्न पूंछे जाते हैं।

परीक्षा की दृष्टि से इस खण्ड को तैयार करना सरल है, क्योंकि यह खण्ड अपेक्षाकृत छोटा है, तथा इस खण्ड से पूंछे जाने वाले प्रश्न प्राय: समसामयिक मुद़्दों से सम्बंधित होते हैं। इस खण्ड की तैयारी के लिये अभ्यार्थी को एनसीईआरटी (NCERT) की पुस्तकों के साथ-साथ ईग्नू (IGNOU) के नोट्स से उपयोगी व पर्याप्त सहायता मिल सकती है। ये पुस्तकें पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी से जुडी अवधारणात्मक समझ विकसित करने में लाभकर सिद्ध होंगी।

आभ्यार्थी को समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, पर्यावरण से सम्बन्धित विशिष्ट प्रकाशनों का भी अध्ययन करना चाहिये, जिससे वह पर्यावरण से सम्बन्धित नवीनतम विकास क्रम एवं सूचनाओं से परिचित हो सके। पर्यावरण प्रदूषण, जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन आदि से जुडे महत्वपूर्ण सम्मेलनों, बैठकों, संधियों तथा उनके महतव्पूर्ण प्रावधानों की जानकारी रखनी चाहिये।

नोट : सिविल सेवा ने परीक्षा के प्रारूप में परिवर्तन किये जाने के बाद से भूगोल विषय में पूंछे गये अधिकांश प्रश्न पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी से सम्बंधित होते है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुये पर्यावरण पारिस्थितिकी एवं जैव विविधिता खण्ड से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर जानकारी दी जा रही है जिससे विधार्थी इसका पूरा लाभ उठाते हुये आगामी परीक्षा की तैयारी कर सकें।

गामा विविधता

किसी क्षेत्र विशेष में उपस्थित विविध प्रजातियों के "अन्त:सम्बन्धों" को निरूपित करने के लिये गामा विविधता का प्रयोग करते हैं। यह भौगोलिक करकों पर निर्भर करती है अर्थात गामा विविधता सामान आवास के स्थानों के बीच में दूरी के साथ अथवा विस्तार होते हुये भौगोलिक क्षेत्रों के फलस्वरूप जाति बदलाव की दर है।

जैव विविधता का महत्व : पारिस्थितिकीय सेवाओं, वांणिज्यिक एवं सामाजिक दृष्टि से जैव विविधता का महत्वपूर्ण योगदान है, जो निम्नलिखित है:-

सीधे तौर पर स्थानीय लोगों द्दारा उपभोग किया जाता है। विश्व की 80% जनसंख्या औषधियों के लिये पौधों एवं पौधों से प्राप्त होने वाले रासायनों पर आश्रित हैं; जैसे - कुनैन के लिये सिनकोना, डिजिटैलीन (हृदय-विकारों के लिये) डिजिटैलिस के पौधों से प्राप्त किया जाता है। लोग भोजन व ईंधन के लिये इन पर आश्रित हैं। वांणिज्यिक दृष्टि से उपलब्ध वस्तुओं की आपूर्ति करने में कागज उधोग, रेशम, कपडा आदि वनीय जीव-जन्तुओं से ही प्राप्त किये जाते हैं। पारिस्थितिकी से सम्बन्धित मुद्दे, मृदा अपरदन की रोकथाम, बाढों मे रोकथाम, उर्वरकता बनाये रखनें में सहायता, जल-चक्रण, नाईट्रोजन का यौगीकरण इत्यादि सेवायें इससे प्राप्त होती हैं।

जैव विविधता ह्रास के कारण: जैव विविधता ह्रास एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। परन्तु वर्तमान में इसके ह्रास के पीछे प्राथमिक की अपेक्षा मानवीय कारणों का योगदान बढता जा रहा है। मानवीय अविवेकपूर्ण गतिविधियां जैव विविधता को अत्यन्त हानि पहुंचा रही हैं। जैव विविधता ह्रास के लिये निम्न कारण उत्तरदायी हैं:-

  • आवासों का विनाश: तीव्र गति से हो रहे वनोन्मूलन के कारण वन्य जीवों के आवास समाप्त होते जा रहे हैं, इससे वन्यजीव एकाकी समूह से विभक्त होकर समाप्त हो जाते हैं। वैश्विक स्तर पर वन, आर्द्रभूमियां तथा अन्य जैविक सम्पन्नता वाले क्षेत्र मानवीय हस्तक्षेप के कारण विलुप्ति की कगार पर हैं।

  • आवासों का विखण्डन: मानव की विकासीय गतिविधियों के कारण वन्यजीवों के आवासों के मध्य भौमिक अभिसंरचनाओं (सड़क, कस्बे, पर्यटन स्थल, विधुत स्टेशन) क निर्माण कार उन्हें तोड़ दिया गया है। इससे इन स्थलों की प्रकृतिक दशाओं में परिवर्तन होने से जैव-विविधता मे कमी आने लगती है।

  • अवैध शिकार: विश्व के वन्यजीवों के अवैध व्यापार व शिकार के कारण उनके तीव्रता से विलुप्त होने का संकट उत्पन्न हो गया है।

  • प्रदूषण: बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से भी जैव-विविधता का ह्रास हुआ है। सागरीय प्रदूषण से प्रवाल भित्तियों का क्षरण  हुआ है, और जलीय प्रदूषण से जलीय तंत्र में रहने वाले जीवों के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो गया है।

भूमण्डलीय जैव-विविधता

जलवायु परिवर्तन, महाद्दीपीय प्रवाह, पर्वत निर्माणकारी घटनायें। वनस्पतियों के उद्विकास आदि के परिणामस्वरूप धरातल का स्वरूप तथा वनस्पतियों का सृजन हुआ। वर्तमान धरातलीय व पर्यावरणीय दशायें अत्यन्त विषम और विशिष्ट हैं। भूमण्डल पर जैव-विविधता का एक उत्कृष्ट तथा विषम रूप सृजित हुआ है। संसार की 14,13,000 प्रजातियां निर्धारित की जा चुकी हैं। किन्तु अभी भी अनेक प्रजातियां अनिर्धारित हैं।

निर्धारित प्रजातियां एव उनकी संखया

भूतल पर विभिन्नता के आधार पर जैव-विविधता को निम्नांकित क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है।
  • कीट : 7,51,000

  • पादप : 2,50,000

  • कवक : 69,000

  • प्रोस्टिस : 30,000

  • शैवाल : 26,000

  • जीवाणु : 4,800

  • विषाणु : 1,000

  • अत्यधिक जैव-विविधता वाला क्षेत्र
  • अधिक जैव-विविधता वाला क्षेत्र
  • कम जैव-विविधता वाला क्षेत्र
  • निम्न जैव-विविधता वाला क्षेत्र

अत्यधिक जैव-विविधता वाले क्षेत्र

जहां जलवायविक दशाऎं अनुकूल होने के कारण जीव-जन्तुओं, प्राणियों एवं वनस्पतियों का विकास संसार के अन्य भू-भाग की अपेक्षा अधिक हुआ है। इसे निम्नांकित चार भागो में बांट कर भली-भांति स्पष्ट किया जा सकता है।

ऊष्णकटिबंधीय वर्षा वन : यहां अत्यधिक जैव-विविधता देखने को मिलती है क्योंकि यहां स्थानीय स्पीशीज निरन्तर जीवित तथा प्राचीन समुदाय से सम्बन्धित, जीवि में पर्यावरण-अनुकूलन की प्रवृत्ति, नाशक जीवों तथा परजीवियों की संख्या की अधिकता, पाद्पों में बहि:संकरण की ऊंची दर, ऊर्जा की प्राप्ति की अधिकता आदि है। अनुकूल परिस्थितियों के कारण जैव-विविधता के इतना विकास हुआ है कि इसे जैव-विविधता का भंडार कहा जाता है। यहां पर संसार की 50% से अधिक ज्ञात प्रजातियां विद्धमान है।

आर्दृभूमियां : स्थल तथा जल के मध्य का संक्रमण क्षेत्र आर्दृभूमि कहलाता है, जिसमें जीवों का उत्पादन अधिक होता है। परिणामस्वरूप आर्दृभूमियां जैव-विविधता की दृष्टि से समृद्ध होते हैं। इसमें जल की अधिकता, उर्वरक मृदा एवं वातन रहित मृदा आदि इस क्षेत्र की मुख्य विशेषता है। वनस्पतियों का शीघ्र विकास होता है, जिस कारण जीवों के लिये उत्तम प्राकतिक वास की प्राप्ति होती है। आद्रभूमियां दो प्रकार की होती है। सागर तटवर्ती आद्रभूमि समुद्रों व स्थल की मिलन बिन्दु होती है, जो स्वच्छ एवं लवणजलीय दोनो प्रकार की होती है। कच्छ, ज्वारीय मैंग्रोव स्वच्छ जलीय आद्रभूमि के प्रमुख दृष्टांत हैं, जिसमें अधिक जैव-विविधता पाई जाती है कच्छ क्षेत्र जलपूर्ण एवं अधिक आर्दृ होते हैं। इसमें पक्षियों तथा वन्य जीवों का अधिक संख्या में विकास होता है।

ऊष्णकटिबंधीय जैव-विविधता

ऊष्णकटिबंधों में जैव-विविधता के सम्रद्ध होने के निम्न कारण हैं:-

  • भूवैज्ञानिक समय से ऊष्णकटिबंधों की जलवायु शीतोष्ण जोन (Temperate Zone) की तुलना में अधिक स्थाई होती है। ऊष्णकटिबंधों में स्थानीय जाति, अपने आप लगातार जीवित रहती है।
  • ऊष्णकटिबंधीय समुदाय, शीतोष्ण कटिबंध से ज्यादा पुराना है। इसलिये इनके विकास के लिये वहां अधिक समय मिला है। यह विकास उन्हें अधिक विशिष्टता (Specialisation) प्रदान करता है और स्थानीय अनुकूलन देने में सहायक हो सकता है।
  • ऊच्च तापमान और उच्च आदृता ज्यादातर ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कई जातियों के लिये अनुकूल दशाऎं प्रदान करता है, जिनमें शीतोष्ण क्षेत्रों में रहने की क्षमता नही होती।
  • ऊष्णकटिबंधों में, परजीवियों व रोगों से अत्यधिक दाब हो सकता है। यह किसी एक जाति को प्रभावित करने की आज्ञा नही देता और इस प्रकार वहां कई जाति के सहअस्तित्व के लिये अवसर होता है। इसके विपरीत शीतोष्ण क्षेत्र में शीत के कारण एक या कुछ प्रभावी जातियां है, जो अन्य जातियों का विनाश कर देती है।

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