मध्यकालीन भारत: दिल्ली सल्तनत (मामलुक वंश या गुलाम वंश)
मध्यकालीन भारत का इतिहास
दिल्ली सल्तनत
1206 ई में मुहम्मद गोरी की मृत्यु के पश्चात् उसके संतानहीन होने के कारण उसके साम्राज्य को उसके तीन गुलामो ने आपस में बाँट लिया। इनमे यल्दौज को गजनी का राज्य क्षेत्र , कुंबांचा को सिंध और मुल्तान तथा कुतुबुद्दीन ऐबक को भारतीय राज्य क्षेत्रों पर अधिकार मिला। गोरी के विश्वस्त गुलाम ऐबक ने तराईन के युद्ध के पश्चात भारत में राज्य विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कुतुबुद्दीन ऐबक जिस वंश की नीव रखी, उसे मामलुक या गुलाम वंश कहते है, क्योकि वह मुहम्मद गोरी द्वारा ख़रीदा हुआ गुलाम था।
मामलुक वंश या गुलाम वंश
मुहम्मद गोरी के मृत्यु के पश्चात तुर्को द्वारा भारत के विजित क्षेत्रों पर तुर्की शासन की स्थापना हुई और इस क्षेत्र का प्रथम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक बना। 1206 ई० से 1290 ई० के मध्य इस वंश में अनेक शासक हुए जिनमे प्रमुख शासक कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश, रजिया सुल्तान और बलबन थे जिन्होंने तुर्क सत्ता को सुदुरुनीकर्ता किया ।
मामलुक वंश के शासकों का क्रम निम्न है:–
- कुतुब-उद-दीन ऐबक (1206-1210)
- आरामशाह (1210-1211)
- शम्सुद्दीन इल्तुतमिश (1211-1236)
- रुक्नुद्दीन फिरोजशाह (1236)
- रजिया सुल्तान (1236-1240)
- मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240-1242)
- अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-1246)
- नासिरुद्दीन महमूद शाह (1246-1265)
- गयासुद्दीन बलबन (1265-1287)
- अज़ुद्दीन कैकुबाद (1287-1290
- क़ैयूमर्स (1290)
कुतुबुद्दीन ऐबक (1206 - 1210 ई० में)
मुहम्मद गोरी की मृत्यु के पश्चात् ऐबक को उत्तरी भारत का विजित क्षेत्र प्राप्त हुआ था। यह एक विस्तृत क्षेत्र था, जिसमे सियालकोट, लाहौर, अजमेर, झाँसी, दिल्ली, मेरठ, कोल (अलीगढ), कन्नौज, बनारस, बिहार, तथा लखनौती के क्षेत्र सम्मिलित थे। ऐबक को सिंध और मुल्तान छोड़कर मुहम्मद गोरी द्वारा विजित उत्तर भारत का संम्पूर्ण क्षेत्र प्राप्त हुआ था। इस विशाल क्षेत्र के साथ उसे उत्तराधिकारी के रूप में अनेक चुनौतियां भी मिली थी, जिन्हे अपने अल्प शासनकाल में उसने समझदारी पूर्वक निपटाया और नव गठित राज्य को युद्ध की विभीषिका से बचाये रखा।
अपनी कुशाग्र बुद्धि, व्यवहार एवं सैनिक कुशलता के कारण वह शीघ्र ही गोरी का विश्वस्त हो गया तथा शाही अस्तबल के अधिकारी आमिर-ऐ-आखुर के रूप में उसकी पर्दोंति हो गई। गोरी के सैन्य अभियानों में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1192 में पृथ्वीराज चौहान पर विजय प्राप्त करने के बाद गोरी ने ऐबक को अपने द्वारा विजित भारतीय क्षेत्रों का प्रमुख नियुक्त किया था। ऐबक ने वैवाहिक नीति के द्वारा भी अपनी स्थिति मजबूत की थी। उसने मुहम्मद गोरी के एक अन्य विश्वस्त अधिकारी ताजुद्दीन यल्दौज की पुत्री से विवाह किया, अपनी बहन का विवाह नासिरुद्दीन कुबाचा से किया, जो सिंध का प्रभारी अधिकारी था तथा अपनी पुत्री का विवाह तुर्की दास अधिकारी इल्तुतमिश से किया था।
गोरी की मृत्यु के पश्चात् उसने 24 जून, 1206 ई०, को लाहौर में एक स्वतन्त्र शासक के सामान शासन अपने हाथ में ले लिया । उसने न तो अपने नाम के सिक्के डलवाये न खुतबा पढ़वाया और न ही सुल्तान की उपाधि धारण की बल्कि मलिक और सिपहसालार की नम्र उपाधियों से शासन प्रारंम्भ किया।
शम्सुद्दीन इल्तुतमिश (1211 - 1236 ई०)
- इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत के आरंभ के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जिन विषम परिस्थितियों में उसने राज्य प्राप्त किया, उन्हें अपनी योग्यता, दूरदर्शिता और प्रतिभा के बल पर उसने समाप्त किया और अपने साम्राज्य को मजबूत किया। इसलिए उसे दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।
- इल्तुतमिश, इल्बरी जनजाति का तुर्क था। वह ग्वालियर और बुलंदशहर का सूबेदार था। 1206 में ऐबक ने उसे बदायू का सूबेदार बनाया।
- ऐबक की मृत्यु के बाद दिल्ली के कुलीन तुर्को ने आरामशाह की अयोग्यता के
कारण इल्तुतमिश को सुल्तान बनने के लिए आमंत्रित किया। इल्तुतमिश ने आरामशाह को
पराजित कर तुर्क सत्ता अपने हाथ में ले ली।
इल्तुतमिश ने लाहौर की बजाय दिल्ली को मुख्यालय बनाया ।
इल्तुतमिश ने 26 वर्ष तक शासन किया, जिसे तीन भागो में विभाजित किया जा सकता है:-
- 1210 से 20 ई . तक विरोधियो का दमन
- 1221 से 29 ई . तक मंगोल आक्रमण और अन्य खतरों का सामना
- 1229 से 39 ई . तक सत्ता के सुदृणीकरण के प्रयास
इल्तुतमिश के शासक बनने के उपरान्त सबसे पहली चुनौती ताजुद्दीन यल्दौज ने दी, जिसे ऐबक ने पराजित किया था परन्तु वह फिर दिल्ली पर अपना अधिकार चाहता था। इल्तुतमिश इस समय अपने साम्राज्य में विद्रोह करने वाले क़ुत्बी और मुइज्जी सामंतो को कमजोर करने में लगा था। उसने अपने विश्वसनीय चालीस दास अधिकारियो को सामंतो के रूप में नियुक्त कर नए दल चालीसा का गठन किया था क़ुत्बी और मुइज्जी सामंतों को इन बड़े पदों से हटा दिया। इस प्रकार राजसत्ता पर इल्तुतमिश ने पूर्ण नियंत्रण प्राप्त किया और अपनी आंतरिक स्थिति को मजबूत किया।
1215 - 16 में इल्तुतमिश का यल्दौज से युद्ध हुआ क्योंकि वह ख्वारिज्म के शासक के पराजित होकर पंजाब पर अधिकार कर उसे अपनी सत्ता को केंद्र बनाना चाहता था। इल्तुतमिश ने उसे पराजित कर बंदी बना लिया और बाद में उसके हत्या कर दी गई। यल्दौज की पराजय के साथ ही दिल्ली सल्तनत का संम्पर्क गजनी से हमेशा के लिए समाप्त हो गया। यह इल्तुतमिश की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। इल्तुतमिश का दूसरा विरोधी मुल्तान और सिंध का गवर्नर नासिरुद्दीन कुबाचा था जिसके ऐबक के साथ अच्छे संबंध थे। परन्तु इल्तुतमिश के समय में वह तुर्की सल्तनत के क्षेत्रों पर अधिकार करने लगा, इल्तुतमिश ने उसे पराजित कर लाहौर पर अधिकार कर लिया।
प्रारंभिक तुर्की शासन में इल्तुतमिश का योगदान
मुहम्मद गोरी भारत में अपने विजित क्षेत्रों में शासन की कोई उचित व्यवस्था न कर सका, क्योंकि उसका ध्यान मध्य एशिया की राजनीती में भी था और कुतुबुद्दीन ऐबक ने मात्र चार वर्ष शासन किया, वो भी चुनौतियां तथा समस्याओ को निपटाने में ही व्यतीत हो गया। इल्तुतमिश को शासक बनने के बाद उत्तराधिकार में बिखरा राज्य क्षेत्र अव्यवस्थित शासन और अधूरे निर्माण व् साम्राज्य संबंधी कार्य मिले थे। अपने 36 वर्ष के शासनकाल में इल्तुतमिश ने लगभग इन सभी समस्याओ को सुलझाया। राजत्व सिद्धांत, मुद्रा व्यवस्था, चालीसा दल का गठन करके उसने सल्तनत को एक आकर प्रदान किया।
इल्तुतमिश ने फ़ारसी राजत्व व् परम्पराओ को अपनाया तथा कुलीनता पर बल दिया। संभवतः रजिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित करते समय भी इल्तुतमिश ईरानी परंपरा से प्रेरित था, जहां पिता का उत्तराधिकार पुत्र के बजाये पुत्री को मिलने के उदाहरण मिले है।
युद्धों और चुनौतियों से निपटने के पश्चात अपने शासन के अंतिम वर्षो में इल्तुतमिश ने प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूत किया। आरंभिक प्रशासन के लिए उसने इक्तादारी प्रथा प्रारंभ की। अपने साम्राज्य को उसने इकताओ में विभाजित कर कुलीन एवं योग्य व्यक्तियों को इक्तादार नियुक्त किया और उन्हें सेवा के बदले में इक्ता दी जाती थी। इस व्यवस्था से सामंतवाद का अंत और केंद्रीकृत प्रशासन मजबूत हुआ ।
इल्तुतमिश ने अरबी परंपरा के आधार पर भारत में नयी मुद्रा व्यवस्था लागू की। उसने तांबे को जीतल (सिक्का ) और चांदी का टंका नाम से सिक्के भारत में तुर्को की सत्ता के मजबूती के प्रतीक थे।
इल्तुतमिश कुशल सेनानायक और योग्य प्रशासक होने के साथ कला और संस्कृति का प्रेमी भी था। उसने मध्य एशिया से आने वाले कलाकारों , विद्वानों एवं शिल्पियों को आश्रय दिया जिससे दिल्ली संस्कृति राजधानी के रूप में भी विकसित हुई। उसके दरबार में प्रसिद्ध इतिहासकार मिन्हाज-ऐ-सिराज रहते थे जिन्होंने 'तबकाते नासिरी' की रचना की थी, जिससे आरंभिक इतिहास ज्ञान होता है।
उसने कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा अधूरे क़ुतुब मीनार का निर्माण पूरा करवाया। राजकुमार नासिरुद्दीन महमूद के मकबरे का निर्माण उसके काल का उत्कृष्ट निर्माण था। साथ ही उसे भारत में मकबरा निर्माण प्रारंभ करवाने का श्रेय भी दिया जाता है। अन्य इमारतों में इल्तुतमिश का मकबरा और शम्सी मदरसा जैसी भव्य इमारते आज भी दर्शनीय है।
गयासुद्दीन बलबन (1265 - 1286 ई०)
गयासुद्दीन बलबन, इल्तुतमिश के पौत्र सुल्तान नासिरुद्दीन की मृत्यु के बाद 1265 में सुल्तान बना। सुल्तान बनने के पश्चात बलबन के समक्ष सबसे पहली चुनौती थी, सुल्तान के पद की गरिमा और प्रतिष्ठा को बढ़ाना। इल्तुतमिश के कमजोर उत्तराधिकारियों के काल में सुल्तान की पद प्रतिष्ठा धूमिल हो गई थी, सुल्तान को तुर्की अमीर कठपुतली समझते थे और जनता में सुल्तान को लेकर घ्रणा थी। बलबन को ये दोनों धारणाये बदलनी थी। बलबन स्वयं चालीसा दल का सदस्य रह चूका था, अतः उसे उनकी भावनाये पता थी। बलबन ने चालीसा दल को भंग किया। नायब का पद समाप्त किया और वजीर के अधिकार सीमित किये।
उसने सुल्तान की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए ईरानी राजत्व को बढ़ावा दिया। इसके अनुसार सुल्तान पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है। वह स्वयं को फिरदोसी के शाहनामा में वर्णित अफरासियाब वंश का बताता था। तथा कुलीनता पर विशेष बल दिया। इतिहासकार बरनी के अनुसार बलबन कहता था की जब भी मै किसी निम्न कुल में उत्पन्न व्यक्ति को देखता हूँ तो मेरी आँखों में अंगारे ही वह निष्पक्ष न्याय का पक्षधर था। अपनी सत्ता की अवमाना वह किसी कुलीनता को प्रश्रय देने के साथ ही वह निष्पक्ष न्याय का पक्षधर था। अपनी सत्ता की अवमानना वह किसी कुलीन द्वारा भी नहीं बर्दाश्त करता था और कठोर दंड देता था।
सुल्तान की पद प्रतिष्ठा के साथ ही उसने अनेक ईरानी परम्पराओ को अपनाया। दरबार का भव्य आयोजन, दरबारियों के परिधान तथा लोगो से उचित दुरी बनाये रखना इत्यादि। उसने सिजदा (दंडवत) तथा पाइबोस (कदम चूमना) की प्रथा प्रारंभ करवाई और ईरानी त्यौहार नौरोज भी मनवाया। उसने शराब पीना छोड़ दिया तथा हंसी-मजाक से परेहज करता था। दरबार में वह गंभीर मुद्रा में रहता था तथा बहुत काम बोलता था। इस प्रकार बलबन ने सुल्तान पद की प्रतिष्ठा और गरिमा को बढ़ाया तथा निरकुंश राजतन्त्र स्थापित किया। पूर्वर्ती और उत्तरवर्ती किसी भी सुल्तान ने बलबन की तरह राजत्व की व्याख्या नहीं की।
बलबन ने साम्राज्य में होने वाले विद्रोहों और मंगोल आक्रमणों से बचने के लिए केंद्रकृत शक्तिशाली सेना का गठन किया तथा सैन्य विभाग (दीवान-ऐ-अर्ज) का पुनर्गठन किया और सेना को सभी अधिकारियो से पृथक रखा। सेना का वास्तविक सेनाध्यक्ष सुल्तान स्वयं था। बलबन ने एक सशक्त गुप्तचर विभाग बनाया, जिसके सदस्य समस्त राज्य में फैले थे और बलबन को खबरे देते थे। ये गुप्तचर पूर्णरूपेण नियंत्रण से मुक्त, सुल्तान के नियंत्रण में कार्य करते थे। इनका कार्य मंत्रियो, राजकुमारों तथा कुलीन वर्ग के सभी उच्च अधिकारिओ की निगरानी करना और सुल्तान को सूचित करना था। बलबन द्वारा निर्मित कुशल गुप्तचर प्रणाली के कारण सरकारी कर्मचारियों एवं अधिकारियो में भय व्याप्त हो गया । सुल्तान के विरोध के स्वर समाप्त हो गए , केंद्रीय सत्ता का नियंत्रण मजबूत हुआ और सुल्तान की निरंकुशता बढ़ी।
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